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________________ १४२ [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४६ प्रवृत्तकरण का काल अंतर्मुहूर्तमात्र, ताके जेते समय होंइ, सो इहां गच्छ जानना । वहुरि सर्वधन को गच्छ का वर्ग करि, ताका भाग दीजिए । वहुरि यथासभव संख्यात का भाग दीजिए, जो प्रमाण आवै; सो ऊर्ध्वचय जानना । वहुरि एक घाटि गच्छ का प्राधा प्रमाण करि चय कौ गुणि, बहुरि गच्छ का प्रमाण करि गुणै जो प्रमाण आवै, सो उत्तरधन जानना । बहुरि इस उत्तरधन को सर्वधन विषै घटाइ, अवशेप को ऊर्ध्वगच्छ का भाग दीए, त्रिकालवर्ती समस्त जीवनि का अधःप्रवृत्तकरण काल के प्रथम समय विष संभवते परिणामनि का पुज का प्रमाण हो है । बहुरि याके विर्षे एक उर्ध्व चय जोडे, द्वितीय समय सबधी नाना जीवनि के समस्त परिणामनि के पुंज का प्रमाण हो है। जैसे ही ऊपरि भी समय-समय प्रति एक-एक अर्वचय जोडें, परिणाम पुज का प्रमाण जानना । तहां प्रथम समय संबंधी परिणाम पुंज विर्षे एक घाटि गच्छ प्रमाण चय जोडे अंत समय संबंधी नाना जीवनि के समस्त परिणामनि के पुज का प्रमाण हो है; सो ही कहिए है - 'व्येकं पदं चयाभ्यस्तं तत्साधंतधनं भवेत्' इस करण सूत्र करि एक घाटि गच्छ का प्रमाण करि चय को गुण जो प्रमाण होइ, ताको प्रथम समय संबंधी परिणाम पुंज प्रमाण विषै जोडे, अंत समय संबंधी परिणाम पुज का प्रमाण हो है । वहुरि या विषै एक चय घटाए, द्विचरम समयवर्ती नाना जीव संबंधी समस्त विशुद्ध परिणाम पुंज का प्रमाण हो है । असे ऊर्ध्वरचना जो ऊपरि-ऊपरि रचना, तीहि विप समय-समय सबंधी अध.प्रवृत्तकरण के परिणाम पुज का प्रमाण कह्या । भावार्थ - आगे कषायाधिकार विष विशुद्ध परिणामनि की संख्या कहैगे, तिस विपै अवःकरण विष संभवते शुभलेश्यामय संज्वलन कषाय का देशघातो स्पर्वकनि का उदय संयुक्त विशुद्ध परिणामनि की संख्या त्रिकालवर्ती नाना जीवनि के असंख्यात लोकमात्र है। तिनि विपै जिनि जीवनि को अध प्रवृत्तकरण मांडै पहला समय है, असे त्रिकाल संवधी अनेक जीवनि के जे परिणाम संभवै, तिनिके समह कौं प्रथम समय परिणाम पुज कहिए । बहुरि जिनि जीवनि को अधःकरण माड़े, दूसरा समय भया, असे त्रिकाल सवधी अनेक जीवनि के जे परिणाम संभवै, तिनिके समूह कौं द्वितीय समय परिणाम पुंज कहिए । अस ही क्रम ते अन्त समय पर्यंत जानना। तहा प्रथमादि समय संवंवी परिणाम पुंज का प्रमाण श्रेणी व्यवहार गणित का विधान करि जुदा-जुदा कह्या, सो सर्वसमय सवंधी परिणाम पुजनि को जोड़ें
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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