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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ १४१, के ५१, ५२, ५३, ५४ । चौदहवां समय के ५२, ५३, ५४, ५५ । पंद्रहवां समय के ५३, ५४, ५५, ५६ । सोलहवां समय के ५४, ५५, ५६, ५७ खंड जानने। . __जाते ऊपरि-ऊपरि सर्वधन एक-एक ऊर्ध्व चय कृरि अधिक है । इहा सर्व जघन्य खंड जो प्रथम समय का प्रथम खंड, ताके परिणामनि के अर सर्वोत्कृष्ट खंड अंत समय का अंत का खंड, ताके परिणामनि के किस ही खंड के परिणामनि करि सहित समानता नाही है; जाते अवशेष समस्त ऊपरि के वा नीचले समय सबंधी खडनि का परिणाम पुंजनि के यथासंभव समानता संभव है । बहुरि इहां ऊर्ध्व रचना विर्षे 'मुहभूमि जोगदले पदगुरिणदे पदधणं होदि' इस सूत्र करि मुख एक सौ बासठि, अर भूमि दोय सौ बाइस, इनिकौं जोड़ि ३८४ । आधा करि १९२ गच्छ, सोलह करि गुणे सर्वधन तीन हजार बहत्तरी हो है । अथवा मुख १६२, भूमि २२२ को जोडै ३८४, आधा कीये मध्यधन का प्रमाण एक सौ बाणवै होइ, ताकौ गच्छ सोलह करि गुण सर्वधन का प्रमाण हो है । अथवा 'पहदतमुखमादिधनं' इस सूत्र करि गच्छ सोलह करि मुख एक सौ बासठि कौ गुणै, पचीस सै बाणवै सर्वसमय संबंधी आदि धन हो है । बहुरि उत्तरधन पूर्व च्यारि सै असी कह्या है, इनि दोऊनि को मिलाएं सर्वधन का प्रमाण हो है । बहुरि गच्छ का प्रमाण जानने को 'आदी अंते सुध्दे वट्टिहदे रूवसंजुदे ठाणे' इस सूत्र करि आदि एक सौ बासठि, सो अत दोय सै बाईस में घटाएं अवशेष साठि, ताकौ वृद्धिरूप चय च्यारि का भाग दीएं पद्रह, तामै एक जोडे गच्छ का प्रमाण सोलह आवै है। असे दृष्टांतमात्र सर्वधनादिक का प्रमाण कल्पना करि वर्णन कीया है, सो याका प्रयोजन यहु - जो इस दृष्टात करि अर्थ का प्रयोजन नीकै समझने मे आवै। अब यथार्थ वर्णन करिए है - सो ताका स्थापन असंख्यात लोकादिक की अर्थसंदृष्टि करि वा सदृष्टि के अथि समच्छेदादि विधान करि संस्कृत टीका विष दिखाया है, सो इहा भाषा टीका विष प्रागै सदृष्टि अधिकार जुदा कहैगे, तहां इनिकी भी अर्थसदृष्टि का अर्थ-विधान लिखेंगे तहा जानना । इहां प्रयोजन मात्र कथन करिए है। आगे भी जहां अर्थसंदृष्टि होय, ताका अर्थ वा विधान आगै सदृष्टि अधिकार विष ही देख लेना । जायगा-जायगा संदृष्टि का अर्थ लिखने ते ग्रथ प्रचुर होइ, अर कठिन होइ; तातै न लिखिए है । सो इहां त्रिकालवर्ती नाना जीव सबंधी समस्त अधःप्रवृत्तकरण के परिणाम असंख्यात लोकमात्र है; सो सर्वधन जानना । वहुरि अधः
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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