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________________ ८२ करेमि भते । सामाइयं =हे भगवन् 1 में समतारूप सामायिक करता हूँ । सव्व सावज्जं जोग पच्चक्खामि - सब सावध - पापो के व्यापार त्यागता हूँ 1 पज्जुवासामि= यावज्जीवन - जीवन भर के लिए सामायिक ग्रहण करता हूँ । जावज्जीवाए तिविह तिविहेण मणेण वायाए कारण सामायिक प्रवचन साधु और साध्वी की सामायिक * अप्पाण वोसिरामि = - तीन कररण, तीन योग से । = = मन से, वचन से, ( पाप कर्म ) । न करेमि, न कारवेमि, करत पिन करूँगा, न कराऊ गा, करने वाले अन्न न समणुज्जारगामि तस्स भते पडिक्कमा मि निंदामि गरिहामि शरीर से दूसरे का अनुमोदन भी नही करू गा । हे भगवन् 1 उस पापरूप व्यापार से हटता हूँ । = निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ । , = पापमय प्रात्मा को वोसराता हूँ । श्रावक श्रौर श्राविका की सामायिक ป श्रावक और श्राविकाओ के सामायिक का पाठ भी यही है । केवल 'सव्वं सावज्ज' के स्थान मे 'सावज्ज' 'जावज्जीवाए' के स्थान मे 'जावनियम', तिविह तिविहेण' के स्थान मे 'दुविह तिविहरण' बोला जाता है । और करत पि अन्न न समरगुज्जारगामि' यह पद बिल्कुल ही नही बोला जाता । पाठक समझ गए होगे कि साधु और श्रावको के सामायिक व्रत मे कितना अन्तर है ? आदर्श एक ही है, किन्तु गृहस्थ देश सयमी है, परिग्रह आदि रखता है, अत वह तीन कररण, तीन योग से पापो का सर्वथा परित्याग नही कर सकता । वह सामायिककाल मे मन-वचन और शरीर से पाप कर्म न स्वय करेगा, न दूसरो
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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