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________________ ३४ सामायिक-प्रवचन होने के लिए प्रयत्न करना, यथाशक्ति राग -द्वप से रहित होते जाना, भाव सामायिक है। उक्त भाव को जरा दूसरे शब्दो मे कहे, तो यो कह सकते है कि बाह्य दृष्टि का त्याग कर अन्तई प्टि के द्वारा प्रात्मनिरीक्षण मे मन को जोडना, विषमभाव वा त्यागकर समभाव मे स्थिर होना, पौद्गलिक पदार्थो का यथार्थ स्वरूप समझ कर उनसे ममत्व हटाना एव अात्मस्वरूप मे रमण करना 'भाव सामायिक' है। द्रव्य और भाव का सामंजस्य ऊपर द्रव्य और भाव का जो स्वरूप व्यक्त किया गया है, वह काफी ध्यान देने योग्य है । आजकल की जनता, द्रव्य तक पहुँच कर ही थक कर बैठ जाती है, भाव तक पहुँचने का प्रयत्न नही करती । यह माना कि द्रव्य भी एक महत्वपूर्ण साधना है, परन्तु अन्ततोगत्वा उसका सार भाव के द्वारा ही तो अभिव्यक्त होता है | भाव-शून्य द्रव्य, केवल मिट्टी के ऊपर स्पये की छाप है। अत वह साधारण बालको मे रुपया कहला कर भी बाजार मे कीमत नही पा सकता । द्रव्य-शून्य भाव, रुपये की छाप से रहित केवल चादी है। अत वह कीमत तो रखती है, परन्तु रुपये की तरह सर्वत्र निराबाध गति नही पा सकती। चादी भी हो और रुपये की छाप भी हो, तब जो चमत्कार आता है, वही चमत्कार द्रव्य और भाव के मेल से साधना मे पैदा हो जाता है। अत द्रव्य के साथ-साथ भाव का भी विकास करना चाहिए, ताकि आध्यात्मिक जीवन भली-भाति उन्नत बन सके, मोक्ष की ओर गति-प्रगति कर सके। बहुत से सज्जन कहते हैं कि भाव सामायिक का पूर्णतया पालन तो सर्वथा पूर्णवीतराग गुणस्थानो मे ही हो सकता है, पहले नहीं । पहले तो राग-द्वष के विकल्प उठते रहते ही है, क्रोध, मान, माया, लोभ का प्रभाव बहता ही रहता है। पूर्ण वीतराग जीवन्मुक्त आत्मा से नीचे की श्रेणी के आत्मा, भाव सामायिक की ऊ ची चट्टान पर हरगिज नही पहुँच सकते । अत जबकि भावरूप शुद्ध सामायिक हम कर ही नहीं सकते, तो फिर द्रव्य सामायिक भी क्यो करे ? उससे हमे क्या लाभ ? उक्त विचार के समाधान मे कहना है कि द्रव्य, भाव का
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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