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________________ मनुष्यत्व का विकास २५ विकास की दूसरी श्रेणी : साधुवर्ग मनुष्यता के विकास की यह प्रथम श्रेणी पूर्ण होती है। दूसरी श्रेणी साधु-जीवन की है। साधु जीवन की श्रेणी, छठे गुणस्थान से प्रारम्भ होकर तेरहवे गुणस्थान मे केवल-ज्ञान प्राप्त करने पर अन्त मे चौदहवे गुणस्थान मे पूर्ण होती है। चौदहवे गुणस्थान की भूमिका तय करने के बाद कर्म-मल का प्रत्येक दाग साफ हो जाता है, आत्मा पूर्णतया शुद्ध, स्वच्छ एव स्व-स्वरूप मे स्थित हो जाता है , फलत सदाकाल के लिए कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होकर, जन्म-जरा, मरण आदि के दु खो से पूर्णतया छटकारा पाकर मोक्षदशा को प्राप्त हो जाता है, परम-उत्कृष्ट आत्मा परमात्मा बन जाता है। सामायिक का स्वरूप हमारे पाठक अधिकाश अभी गृहस्थ है, अत उनके समक्ष हमने साधु-जीवन की भूमिका की बात न करके पहले उनकी ही भूमिका का स्वरूप रखा है। आपने देख लिया है कि गृहस्थ-धर्म के बारह व्रत है। सभी व्रत अपनी-अपनी मर्यादा मे उत्कृष्ट है। परन्तु, यह स्पष्ट है कि नौवे सामायिक व्रत का महत्व सबसे महान् माना गया है। सामायिक का अर्थ 'सम-भाव' है। अत सिद्ध है कि जब तक हृदय मे 'सम-भाव' न हो, राग-द्वष की परिणति कम न हो, तव तक उग्र-तप एव जप आदि की साधना कितनी ही क्यो न की जाए, उससे आत्म-शुद्धि नही हो सकती। वस्तुत समस्त व्रतो मे सामायिक ही मोक्ष का प्रधान अग है । अहिंसा आदि ग्यारह व्रत इसी समभाव के द्वारा जीवित रहते है। वस्तुत अहिंसा आदि सभी व्रत सामायिक स्वरूप ही है। गृहस्थ-जीवन मे प्रति-दिन अभ्यास की दृष्टि से दो घडी तक यह सामायिक व्रत किया जाता है। आगे चलकर मुनिजीवन मे यह यावज्जीवन के लिए धारण कर लिया जाता है। अत पचम गुणस्थान से लेकर चौदहवे गुरणस्थान तक एकमात्र सामायिक व्रत की ही साधना की जाती है। मोक्ष-अवस्था मे, जबकि माधना समाप्त होती है, समभाव पूर्ण हो जाता है। और, इस समभाव के पूर्ण हो जाने का नाम ही मोक्ष है। यही कारण है कि प्रत्येक
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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