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________________ मनुष्य और मनुष्यत्व मनुष्य, प्राकृति-मात्र से मनुष्य है, परन्तु उसमे मोक्ष-साधक मनुष्यत्व नही। आत्मदर्शन मनुष्य-जीवन का दूसरा पहलू अन्दर की ओर झांकना है। अन्दर की ओर झाँकने का अर्थ यह है कि मनुष्य देह और आत्मा को पृथक्-पृथक् वस्तु समझता है, जड जगत् की अपेक्षा चैतन्य को अधिक महत्त्व देता है, और भोग-विलास की ओर से आँखे बन्द करके अन्तर् मे रमे हुए आत्मतत्त्व को देखने का प्रयत्न करता है। शास्त्र मे उक्त जीवन को अन्तरात्मा या सम्यग्दृष्टि का नाम दिया गया है। मनुष्य के जीवन मे मनुष्यत्व की भूमिका यही से शुरू होती है। अधोमुखी जीवन को ऊर्ध्वमुखी बनाने वाला सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त और कौन है ? यही वह भूमिका है, जहाँ अनादिकाल के अज्ञानअन्धकाराच्छन्न जीवन मे सर्वप्रथम सत्य की सुनहली किरण प्रस्फुटित होती है। पाठको ने समझ लिया होगा कि मनुष्य और मनुष्यत्व मे क्या अन्तर है ? मनुष्यशरीर का होना दुर्लभ है, या मनुष्यत्व का होना ? सम्यग्दर्शन मनुष्यत्व की पहली सीढी है। इस पर चढने के लिए अपने-आपको कितना बदलना होता है, यह अभी ऊपर की पक्तियो मे लिख आया हूँ। वकील, बैरिस्टर, जज या डाक्टर ग्रादि की अनेक कठिन से कठिन परीक्षाओ में तो प्रतिवर्ष हजारो, लाखो व्यक्ति उत्तीर्ण होते है, परन्तु मनुष्यत्व की परीक्षा मे, समग्र जीवन काल मे भी, उत्तीर्ण होने वाले कितने मनुष्य हैं ? मनुष्यत्व की सच्ची शिक्षा देने वाले स्कूल, कालेज, विद्यामन्दिर तथा पाठ्यपुस्तके आदि भी कहाँ है ? मनुष्याकृति मे घूमते-फिरते करोडो मनुष्य दृष्टि-गोचर होते है, परन्तु प्राकृति के अनुरूप हृदय वाले एव मनुष्यता की सुगन्ध से हर क्षण सुगन्धित जीवन रखने वाले मनुष्य गिनती के ही होगे। मनुष्यत्व से रहित मनुष्य-जीवन, पशु पक्षियो से भी गया-गुजरा होता है । अज्ञानी पशु तो घी, दूध तथा भारवहन आदि सेवारो के द्वारा मानवसमाज का थोडा-बहुत उपकार करते भी रहते हैं, परन्तु मनुष्यताशून्य मनुष्य तो अन्याय एव अत्याचार का चक्र चलाकर स्वर्गोपम दिव्य ससार को सहसा नरक का नमूना बना डालता है । अस्तु, धन्य है वे
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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