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________________ सामायिक सूत्र अथवा अतीन्द्रिय है, जो ज्ञानमय है और अविनाशी है, वह देवाधिदेव मेरे हृदय मे विराजमान होवे | ३१४ , यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तिः सिद्धो विबुद्धो धुत - कर्मबन्धः । ध्यातो धुनीते सकल विकार, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १७ ॥ - जो विश्व - ज्ञान की दृष्टि से अखिल विश्व मे व्याप्त है, जो विश्व-कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होता है, सिद्ध है, बुद्ध है, कर्म - बन्धनो से रहित है, जिसका ध्यान करने पर समस्त विकार दूर हो जाते है, वह देवाधिदेव मेरे अन्तर्मन में विराजमान होवे | न स्पृश्यते कर्मकलङ्कदोषैर्, यो ध्वान्तसघैरिव तिग्मरश्मिः । निरञ्जनं नित्यमनेकमेक, त देवमाप्त शरण प्रपद्ये ॥ १८ ॥ - जो कर्म-कलक-रूपी दोषो के स्पर्श से उसी प्रकार रहित है, जिस प्रकार प्रचण्ड सूर्य अन्धकार - समूह के स्पर्श से रहित होता है, जो निरजन है, नित्य है, तथा जो गुरणो की दृष्टि से अनेक है और द्रव्य की दृष्टि से एक है, उस परम सत्य - रूप प्राप्तदेव की शरण मै स्वीकार करता हूँ । . विभासते यत्र मरीचिमालि न्यविद्यमाने बोध मयप्रकाशं, तं देवमाप्त शरण प्रपद्ये ॥ १६ ॥ IN - लौकिक सूर्य के न रहते हुए भी जिसमे तीन लोक को प्रकाशित करने वाला केवल ज्ञान का सूर्य प्रकाशमान हो रहा है, जो निश्चय नय की अपेक्षा से अपने आत्म-स्वरूप मे ही स्थित है, उस आप्त देव की शरण में स्वीकार करता हूँ । भुवनावभासि । स्वात्मस्थित
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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