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________________ प्रणिपात-सूत्र २७१ ही पुन राज्य की सुव्यवस्था करता है, सम्पूर्ण बिखरी हुई देश की शक्ति को एक शासन के नीचे लाता है। सार्वभौम राज्य के विना प्रजा मे शान्ति की व्यवस्था नही हो सकती । चक्रवर्ती इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। वह पूर्व, पश्चिम और दक्षिण इन तीन दिशाप्रो मे समुद्र-पर्यन्त तथा उत्तर मे लघु हिमवान् पर्वत पर्यन्त अपना अखण्ड साम्राज्य स्थापित करता है, अत चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाता है। __ तीर्थ कर भगवान् भी नरक, तिर्य च आदि चारो गतियो का अन्तकर सम्पूर्ण विश्व पर अपना अहिंसा और सत्य अादि का धर्म राज्य स्थापित करते हैं। अथवा दान, शील, तप और भावरूप चतुर्विध धर्म की साधना स्वय अन्तिम कोटि तक करते है, और जनता को भी इस धर्म का उपदेश देते हैं, अत वे धर्म के चतुरन्त चक्रवर्ती कहलाते है । भगवान् का धर्म चक्र ही वस्तुत ससार मे भौतिक एवं आध्यात्मिक अखण्ड शान्ति कायम कर सकता है। अपने-अपने मत-जन्य दुराग्रह के कारण फैली हुई धार्मिक अराजकता का अन्त कर अखण्ड धर्म-राज्य की स्थापना तीर्थ कर ही करते है । वस्तुत यदि विचार किया जाए, तो भौतिक जगत के प्रतिनिधि चक्रवर्ती से यह ससार कभी स्थायी शान्ति पा ही नही सकता। चक्रवर्ती तो भोग-वासना का दास एक पामर ससारी प्राणी है। उसके चक्र के मूल मे साम्राज्यलिप्सा का विप छ पा हुआ है, जनता का परमार्थ नही, अपना स्वार्थ रहा हुआ है । यही कारण है कि चक्रवर्ती का शासन मानव-प्रजा के निरपराध रक्त से सीचा जाता है, वहाँ हृदय पर नही, शरीर पर विजय पाने का प्रयत्न है। परन्तु हमारे तीर्थ कर धर्म-चक्रवर्ती है। अतः वे पहले अपनी ही तप साधना के बल से काम, क्रोधादि अन्तरग शत्र प्रो को नष्ट करते है, पश्चात् जनता के लिए धर्म-तीर्थ की स्थापना कर अखण्ड आध्यात्मिक शान्ति का साम्राज्य कायम करते है। तीर्थ कर शरीर के नही, हृदय के सम्राट् वनते है, फलत वे ससार मे पारस्परिक प्रेम एव सहानुभूति का, त्याग एव वैराग्य का विश्व-हितकर शासन चलाते है। वास्तविक सुख-शान्ति, इन्ही धर्म चक्रवर्तियो के शासन की छत्रछाया मे प्राप्त हो सकती है, अन्यत्र नहीं। तीर्थ कर
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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