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________________ चैतन्य आत्मा अतीन्द्रिय है आत्मा इन्द्रिय, वाणी, बुद्धि और मन से अगोचर हैसव्वे सरा नियति तवका तत्थ न विज्जइ ।* -आचाराग ११५।६ आत्मा स्वपर-प्रकाशक है अस्तु, पात्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने की शक्ति एकमात्र आत्मा मे ही है, अन्य किसी भी भौतिक साधन मे नही । जिस प्रकार स्व-पर प्रकाशक दीपक को देखने के लिए दूसरे किसी साधन की आवश्यकता नही होती, अपने उज्ज्वल प्रकाश से ही वह स्वय प्रतिभासित हो जाता है, ठीक इसी प्रकार स्व-पर प्रकाशक प्रात्मा को देखने के लिए भी किसी दूसरे भौतिक प्रकाश की आवश्यकता नही । अन्तर मे रमा हुया ज्ञान-प्रकाश ही, जिसमे से वह प्रस्फुरित हो रहा है, उस अनन्त तेजोमय आत्मा को भी देख लेता है। आत्मा की सिद्धि के लिए स्वानुभूति ही सबसे बड़ा प्रमाण है। अतएव आत्मा के सम्बन्ध मे कहा जाता है कि 'मै' क्यो हूँ, चूंकि 'मैं' हूँ। प्रात्मा सर्वव्यापी नहीं भ आत्मा सर्वव्यापी नहीं, बल्कि शरीर-प्रमाण होती है। छोटे शरीर मे छोटी और बडे शरीर मे बडी हो जाती है। छोटी वय के बालक मे आत्मा छोटी होती है, और उत्तरोत्तर ज्यो-ज्यो शरीर वढता जाता है, त्यो त्यो आत्मा का भी विस्तार होता जाता है। आत्मा मे सकोच-विस्तार का गुण प्रकाश के समान है। एक विशाल कमरे मे रखे हुए दीपक का प्रकाश बडा होता है, परन्तु यदि आप उसे उठाकर एक छोटे-से घडे मे रख दे, तो उसका प्रकाश उतने मे ही सीमित हो जाएगा। यह सिद्धान्त अनुभव-सिद्ध भी है कि शरीर मे जहाँ कही भी चोट लगती है, सर्वत्र दुख का अनुभव होता है। * तुलना कीजिए-न तत्र चक्षुर्गच्छति, न वाग् गच्छति, नो मन ।। -केन उपनिपद्, खण्ड १, कण्डिका ३ ।
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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