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________________ प्रणिपात-सूत्र २६९ दीपक की महत्ता, स्पष्टत झलक उठेगी। बात यह है कि सूर्य और चन्द्र प्रकाश तो करते है , किन्तु किसी को अपने समान प्रकाशमान नहीं बना सकते। इधर लघु दीपक अपने ससर्ग मे आए, अपने से सयुक्त हुए हजारो दीपको को प्रदीप्त कर अपने समान ही प्रकाशमान दीपक बना देता है। वे भी उसी तरह जगमगाने लगते है और अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने लगते है। हाँ, तो दीपक प्रकाश देकर ही नहीं रह जाता, वह दूसरो को भी अपने समान ही बना लेता है। तीर्थ कर भगवान् भी इसी प्रकार केवल प्रकाश फैला कर ही विश्रान्ति नही लेते, प्रत्युत अपने निकट ससर्ग मे आने वाले अन्य साधको को भी साधना का पथ प्रदर्शित कर अन्त मे अपने समान ही बना लेते है। तीर्थ करो का ध्याता, सदा ध्याता ही नहीं रहता, वह ध्यान के द्वारा अन्ततोगत्वा ध्येय-रूप मे परिणत हो जाता है। उक्त सिद्धान्त की साक्षी के लिए गौतम और चन्दना आदि के इतिहास प्रसिद्ध उदाहरण, हर कोई जिज्ञासु देख सकता है। अभयदयः अभयदान के दाता ससार के सब दानो मे अभय-दान श्रेष्ठ है । हृदय की करुणा अभय-दान मे ही पूर्णतया तरगित होती है । 'दाणाण सेठं अभयप्पयारण ।' -सूत्र कृताग, ६/२३ अस्तु, तीर्थ कर भगवान् तीन लोक मे अलौकिक एव अनुपम दयालु होते हैं। उनके हृदय मे करुणा का सागर ठाठे मारता रहता है। विरोधी-से-विरोधी के प्रति भी उनके हृदय से करुणा की धारा बहा करती है। गोशालक कितना उद्दण्ड प्राणी था ? परन्तु भगवान् ने तो उसे भी क्रुद्ध तपस्वी की तेजोलेश्या से जलते हुए बचाया। चण्डकौशिक पर कितनी अनन्त करुणा की है ? तीर्थ करदेव उस युग मे जन्म लेते हैं, जब मानव-सभ्यता अपना पथ भूल जाती है, फलत सब ओर अन्याय एव अत्याचार का दम्भपूर्ण साम्राज्य छा जाता है। उस समय तीर्थ कर भगवान् क्या स्त्री क्या पुरुप, क्या राजा क्या रक, क्या ब्राह्मण क्या शूद्र,
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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