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________________ २३४ सामायिक-सूत्र करना माना जाए, तब भी कोई हानि नही है। गुरुदेव उपस्थित न हो, तव वीतराग भगवान् को ही साक्षी बना कर अपना धर्मानुष्ठान शुरू कर देना चाहिए । वीतराग देव हमारे हृदय की सब भावनाओ के द्रष्टा है, उनसे हमारा कुछ भी छिपा हुआ नही है, अत. उनकी साक्षी से धर्म-साधना करना, हमे आध्यात्मिक क्षेत्र मे बडी बलवती प्रेरणा प्रदान करता है, सतत जागृत रहने के लिए सावधान करता है। वीतराग भगवान् की सर्वज्ञता और उनकी साक्षिता हमारी धर्म-क्रियाओं मे रहे हुए दम्भ के विष को दूर करने के लिए अमोघ अमृत मन्त्र है। सावध की व्याख्या 'सावज्ज जोग पच्चक्खामि' मे आने वाले 'सावज्ज' शब्द पर भी विशेष लक्ष्य रखने की आवश्यकता है। 'सावज्ज' का संस्कृत रूप सावध है। सावध मे दो शब्द है-स' और 'अवद्य' । दोनो मिलकर 'सावद्य' शव्द बनता है। सावध का अर्थ है,पाप-सहित । अत जो कार्य पाप-सहित हो, पाप-कर्म के बन्ध करने वाले हो, आत्मा का पतन करने वाले हो, सामायिक मे उन सवका त्याग आवश्यक है। परन्तु, कुछ लोगो की मान्यता हैं कि “सामायिक करते समय जीव-रक्षा का कार्य नही कर सकते, किसी की दया नही पाल सकते।" इस सम्बन्ध मे उनका अभिप्राय यह है कि "सामायिक मे किसो पर राग-द्वेष नही करना चाहिए । और, जब हम किसी मरते हुए जीव को बचाएंगे, तो, अवश्य उस पर राग-भाव आएगा। विना राग-भाव के किसी को बचाया नहीं जा सकता।" इस प्रकार उनकी दृष्टि मे किसी मरते हुए जीव को बचाना भी सावध योग है। प्रस्तुत भ्रान्त धारणा के उत्तर मे निवेदन है कि सामायिक मे सावध योग का त्याग है । सावध का अर्थ है पापमय कार्य । अत. सामायिक मे जीव-हिंसा का त्याग ही अभीष्ट है, न कि जीव-दया का । क्या जीव-दया भी पापमय कार्य है ? यदि ऐसा है, तव तो ससार मे धर्म का कुछ अर्थ ही नहीं रहेगा । दया तो मानव-हृदय के कोमल-भाव की एव सम्यक्त्व के अस्तित्व की सूचना देने वाला अलौकिक धर्म है । जहाँ दया नही, वहाँ धर्म तो क्या, मनुष्य की साधारण मनुष्यता भी न रहेगी । जीव-दया जैन-धर्म का तो प्राण
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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