SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुविशतिस्त-सूत्र २२१ तिरा जाए, वह साधना । 'प्रतिक्रमण सूत्र पद विवृत्ति' मे आचार्य नमि लिखते है ___"दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्म -'तीर्यतेऽनेन इति तीर्थम्, धर्म एव तीर्थम् धर्मतीर्थम्" अस्तु, ससार-समुद्र से तिराने वाला, दुर्गति से उद्धार करने वाला धर्म ही सच्चा तीर्थ है। और, जो इस प्रकार के अहिंसा, सत्य आदि धर्म-तीर्थ की स्थापना करते है, वे तीर्थ कर कहलाते है। चौवीसो ही तीर्थ करो ने, अपने-अपने समय मे, अहिसा, सत्य आदि आत्म-धर्म की स्थापना की है, धर्म से भ्रष्ट होती हुई जनता पुन धर्म मे स्थिर की है। ___'जिन' का अर्थ है-विजेता। किसका विजेता ? इसके लिए फिर आचार्य नमि के पास चलिए, क्योकि वह प्रागमिक परिभाषा का एक विलक्षण पण्डित है । प्रतिक्रमण सत्र पद विवृत्ति मे लिखा है "राग-द्वेष कषायेन्द्रिय परिषहोपसर्गाष्टप्रकारकम जेतृत्वाज्जिना ।" राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रिय, परिपह, उपसर्ग तथा अष्टविध कर्म के जीतने से जिन कहलाते है। चार और आठ कर्म के चक्कर मे न पडिए । तीर्थकरो के चार अघाति-कर्म भी विजित-प्राय ही है । वासनाहीन पुरुप के लिए केवल भोग्य-मात्र हैं, बधन नही । घाति-कर्म नष्ट होने के कारण अब इनसे आगे नये कर्म नहीं बध सकते। यह तो तीर्थकरो के जीवन काल की बात है । और, यदि वर्तमान मे प्रश्न है, अब तो चौवीस तीर्थ कर मोक्ष में पहुंच चुके है, आठो ही कर्मो को नष्ट कर सिद्ध हो चुके है, अत वे पूर्ण जिन है। तीर्थकर : उच्चता का आदर्श जैन-धर्म ईश्वरवादी नहीं है, तीर्थ करवादी है। किसी सर्वथा परोक्ष एव अज्ञात ईश्वर मे वह बिल्कुल विश्वास नही रखता। उसका कहना है कि जिस ईश्वर नामधारी व्यक्ति की स्वरूप-सम्बन्धी कोई रूपरेखा हमारे सामने ही नही है, जो अनादिकाल से मात्र कल्पना का विषय ही रहा है, जो सदा से अलौकिक ही रहता
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy