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________________ सामायिक सूत्र प्रायश्चित्त का दूसरा अर्थ होता है - पाप का छेदन करने २०२ वाला "पापच्छेदकत्वात् प्रायश्चित्त, प्राकृते पायच्छत्तमिति । " तीसरा अर्थ और है- प्राय - पाप, करना । तथा - - स्था० ३ ठा० ४ उद्दे ० टीका उसको चित्त शोधन 'प्राय पापं विनिर्दिष्ट, चित्तं तस्य च शोधनम् ।' पाव छिंदइ जम्हा, 'अपराधो वा प्राय, चित्त शुद्धि, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्त अपराधविशुद्धि. ।' - - धर्म संग्रह ३ अधि० - राजवार्तिक ६/२२/१ उक्त सभी अर्थों का मूल आवश्यकनियुक्ति मे इस प्रकार दिया है पाए वा विचित्त, पायच्छित तु भण्ाई तेरा | विसोहए तेण पच्छित्त । १५०३ । जिससे पाप का नाश होता है, अथवा जिसके द्वारा चित्त की विशुद्धि होती है - उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है । प्रायश्चित्त की एक और भी बडी सुन्दर व्युत्पत्ति है, जो सर्वसाधारण जनता के मानस पर प्रायचिश्त की प्रतिक्रिया को ध्यान मे रख कर की गई है । प्राय का अर्थ है लोक - जनता, और चित्त का अर्थ मन है । जिस क्रिया के द्वारा जनता के मन मे आदर हो, वह प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त कर लेने के बाद जनता पर क्या प्रतिक्रिया होती है, यही उस व्युत्पत्ति का प्रारण है । बात यह है कि पाप करने वाला व्यक्ति जनता की आँखो मे गिर जाता है, जनता उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगती है । क्योकि जनता मे आदर धर्माचरण का होता है, पापाचरण का नही । पापाचरण के कारण मनुष्य जनता के हृदय से अपना वह धर्माचरण-मूलक गौरव
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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