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________________ सामायिक सूत्र १९४ विराधना करना, कराना और अनुमोदन करने के रूप मे तीन प्रकार से होती है, अत तीन से गुरगन करने पर १० १३४० भेद हो जाते है । इन सबको भी भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप तीन काल से गुरणन करने पर ३०४० २० भेद हो जाते है । इन को भी अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, गुरु र निज ग्रात्मा - उक्त छह को साक्षी से गुणन करने पर सब १८ २४ १२० भेद होते हैं । 'मिच्छामि दुक्कड' TET कितना बड़ा विस्तार है। साधक को चाहिए कि शुद्ध हृदय से प्रत्येक प्राणी के प्रति मैत्री भावना रखते हुए कृत पापो की अरिहन्त श्रादि की साक्षी से आलोचना करे, अपनी आत्मा को पवित्र बनाए । जीव-जातियां * - सपूर्ण विश्व मे जितने भी ससारी जीव हैं उन सब को जैन-दर्शन ने पाच जातियो मे विभक्त किया है । एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक सभी जीव उक्त पांच जातियो मे ग्रा जाते है । वे पॉच जातियाँ इस प्रकार है- एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय र पचेन्द्रिय । श्रोत्र – कान, चक्षु -- ग्राख, धारण- नाक, रसन- जिल्हा और स्पर्शन - त्वचा - ये पाच इन्द्रियाँ है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति एकेन्द्रिय जीव है, इनको एक स्पर्शन इन्द्रिय ही है । कृमि, शख, सीप आदि द्वीन्द्रिय है, इनको स्पर्शन और रसन दो इन्द्रियाँ हैं । चीटी, मकोडा, खटमल, जू आदि त्रीन्द्रिय जीव हैं, इनको स्पर्शन, रसन और प्रारण तीन इन्द्रियाँ है । मक्खी, मच्छर, बिच्छू श्रादि चतुरिन्द्रिय जीव है, इनको उक्त तीन और एक चक्षु कुल चार इन्द्रियाँ है । गर्भ से पैदा होने वाले तिर्यच, मनुष्य तथा नारक एव देव पचेन्द्रिय जीव हैं, इनको श्रोत्र मिला कर पूरी पाच इन्द्रियाँ है । 'इन्द्रिय' का अर्थबोध 'इन्द्र' नाम आत्मा का है । क्योकि वही अखिल विश्व मे ऐश्वर्य शाली है । जड जगत् मे ऐश्वर्य कहाँ ? वह तो ग्रात्मा का ही अनुचर है, दास है । अतएव कहा है 'इन्दति - ऐश्वर्यवान् भवतीति इन्द्र: ' - निरुक्त ४/१/८
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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