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________________ १८८ सामायिक सूत्र का बन्ध नही होता, क्योकि पाप कर्म के बन्धन का मूल प्रयतना है— जय चरे जय चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जय भुजंतो भासतो, पाव- कर्म न बंधई ॥ - दश० ४/८ प्रस्तुतसूत्र हृदय की कोमलता का ज्वलन्त उदाहरण है । विवेक और यतना के सकल्पो का जीता-जागता चित्र है । आवश्यक प्रवृत्ति के लिए कही इधर-उधर आना-जाना हुआ हो, और यतना का ध्यान रखते हुए भी, यदि कही नवधानता वश किसी जीव को पीडा पहुँची हो, तो उसके लिए उक्त पाठ मे पश्चात्ताप किया गया है । साधारण मनुष्य आाखिर भूल का पुतला है । सावधानी रखते हुए भी कभी-कभी भूल कर बैठता है, लक्ष्य - च्युत हो जाता है। भूल होना कोई असाधारण घातक चीज नहीं है, परन्तु उन भूलो के प्रति उपेक्षित रहना, उन्हे स्वीकार ही न करना, किसी प्रकार का मन मे पश्चात्ताप ही न लाना, भयकर चीज है । जैन-धर्म का साधक जरा-जरा-सी भूलो के लिए पश्चात्ताप करता है औौर हृदय की जागरूकता को कभी भी सुप्त नही होने देता । वही साधक अध्यात्म क्षेत्र मे प्रगति कर सकता है, जो ज्ञात या अज्ञात किसी भी रूप से होने वाले पाप कार्यों के प्रति हृदय से विरक्ति व्यक्त करता है, उचित प्रायश्चित्त लेकर आत्मविशुद्धि का विकास करता है, और भविष्य के लिए विशेष सावधान रहने का प्रयत्न करता है । हृदय-विशुद्धि प्रस्तुत पाठ के द्वारा उपर्युक्त ग्रालोचना की पद्धति से, पश्चात्ताप की विधि से, आत्म-निरीक्षण की शैली से, श्रात्म-विशुद्धि का मार्ग वनाया गया है । जिस प्रकार वस्त्र मे लगा हुआ मैल खार और सावुन से साफ किया जाता है, वस्त्र को अपनी स्वाभाविक शुद्ध दशा मे लाकर स्वच्छ-श्वेत वना लिया जाता है, उसी प्रकार गमनागमनादि क्रियाएँ करते समय ग्रशुभयोग, मन की चचलता तथा ग्रविवेक यादि के कारण अपने विशुद्ध सयम-धर्म में किसी भी तरह का कुछ भी पाप मल लगा हो, तो वह सब पाप प्रस्तुत पाठ के चिन्तन द्वारा साफ किया जाता है । अर्थात् ग्रालोचना के द्वारा अपने सयम धर्म को स्वच्छ शुद्ध वनाया जाता है । पुन
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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