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________________ १४८ सामायिक-सूत्र करके जैन-धर्म ने वस्तुत गुण-पूजा का महत्त्व प्रकट किया है । अतएव साधु आदि पदो का महत्त्व व्यक्ति की दृष्टि से नही, गुणो की दृष्टि से है । साधक की महत्ता ज्ञान आदि की साधना के द्वारा ही है, अन्यथा नही । और, जव ज्ञानादि की साधना पूर्ण हो जाती है, तब साधक अरिहन्त सिद्ध के रूप मे देव-कोटि मे आ जाता है। हाँ, तो दोनो ही परम्पराओ के द्वारा नौ पद होते है और इसी कारण प्रस्तुत मत्र का नाम नवकार मत्र है । नवकार मत्र के नौ पद ही क्यो हैं ? नव पद का क्या महत्त्व है ? इन प्रश्नो पर भी यदि कुछ थोडा-सा विचार कर लें, तो एक गम्भीर रहस्य स्पष्ट हो जाएगा। नव का अक सिद्धि का सूचक भारतीय साहित्य मे नौ का अक अक्षय सिद्धि का सूचक माना गया है। दूसरे अक अखड नही रहते, अपने स्वरूप से च्युत हो जाते हैं। परन्तु, नौ का अक हमेशा अखड, अक्षय बना रहता है। उदाहरण के लिए दूर न जाकर मात्र नौ के पहाडे को ही ले ले । पाठक सावधानी के साथ नौ का पहाडा गिनते जाएँ, सर्वत्र नौ का ही अक शेष रूप मे उपलब्ध होगा 8+8 १८=१+८=६ २७+२+७=8 ३६=३+६=8 ४५=४+५=8 ५४=५+४=8 ६३-६+३=8 ७२=७+२-६ ८१=5+१=8 ६०=8+o=8 आपको समझ मे ठीक तौर से आ गया होगा कि आठ और एक नौ, सात और दो नौ, छ और तीन नौ, पाँच और चार नौ-इस प्रकार सव अको मे गुणाकार के द्वारा नौ का अक पूर्ण-तया अखण्ड
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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