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________________ १४० सामायिक-सूत्र आचार्य का तीसरा पद है । जैन-धर्म मे आचरण का बहुत वडा महत्त्व है । पद-पद पर सदाचार के मार्ग पर सतर्कता से गतिशील रहना ही जैन-साधक की श्रेष्ठता का प्रमाण है। अस्तु, जो प्राचार का, सयम का स्वय पालन करते है, और सघ का नेतृत्व करते हुए दूसरो से पालन कराते हैं, वे आचार्य कहलाते है । जैन-आचारपरपरा के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाच मुख्य अग है। प्राचार्य को इन पाँचो महाव्रतो का प्राण-प्रण से स्वय पालन करना होता है, और दूसरे भव्य प्राणियो को भी, भूल होने पर, उचित प्रायश्चित्त आदि देकर, सत्पथ पर अग्रसर करना होता है। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-यह चतुर्विध सध है, इसकी आध्यात्मिक-साधना के नेतृत्व का भार आचार्य पर होता है। ___चतुर्थ पद उपाध्याय का है । जीवन मे विवेक-विज्ञान की वडी आवश्यकता है । भेद-विज्ञान के द्वारा जड और चैतन्य के पृथक्करण का भान होने पर ही साधक अपना उच्च एवं आदर्श जीवन बना सकता है। अत आध्यात्मिक विद्या के शिक्षण का कर्तृत्व उपाध्याय पर है । उपाध्याय मानव-जीवन की अन्त -ग्रन्थियो को बडी सूक्ष्म पद्धति से सुलझाते है, और अनादिकाल से अज्ञान अन्धकार मे भटकते हुये भव्य प्राणियो को विवेक का प्रकाश देते है । 'उप-समोपेऽधीयते यस्मात् इति उपाध्याय ।' पचम पद साधु का है। साधु का अर्थ है-आत्मार्थ की साधना करने वाला साधक । प्रत्येक व्यक्ति सिद्धि की शोध मे है, परन्तु आत्मार्थ की सिद्धि की ओर किसी विरले ही महानुभाव का लक्ष्य जाता है। सासारिक वासनामो को त्याग कर जो पाच इन्द्रियो को अपने वश में रखते हैं, ब्रह्मचर्य की नव वाडो की रक्षा करते हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ पर यथाशक्य विजय प्राप्त करते है, अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाच महाव्रत पालते है, पाच समिति और तीन गुप्तियो की सम्यक्तया आराधना करते है, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, १ पचविह पायार, आयरमाणस्स तहा पभासता । पायार दसता, मायरिया तेण वुच्चति । --आव०नियुक्ति ९८८ मर्यादया चरन्तीत्याचार्या -आचाराग चूर्णि
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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