SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामायिक में ध्यान जाता है । जैसे - - पर अरिहत, अमर, अविनाशी, अभय आदि अक्षरो की कल्पना करके फिर प्रत्येक ग्रक्षर के वाक्य स्वरूप की गहराई में उतरने का प्रयत्न किया जाता है । मानसिक स्थिरता जितनी गहरी होगी, अक्षर चिंतन उतना ही गम्भीर और विराट् होता जाएगा । सलग्न चित्र से यह प्रक्रिया अच्छी तरह समझ मे आ जायेगी । १२१ कुछ योगाभ्यासी मुमुक्षत्रो का मत है कि ध्यान की ये प्रक्रियाएँ वस्तुत ध्यान साधना की नही प्रत्युत जपसाधना की ही विधियाँ है । हो सकता है, चितनप्रधान ध्यान को 'जप' ही मान लिया 'नाए । फिर भी साधक को ध्यान व जप की परिभाषा मे नही उलझना है, उसे मन को एकाग्र करना है । जिस विधि से भी मन प्रशुभ से शुभ की और उन्मुख हो, दुर्विकल्पो से मुक्त होकर सत्सकल्प एवं क्रमश निर्विकल्पता की ओर बढे, वही विधि श्रेष्ठ है । रूपस्थ ध्यान ** 1 ध्यान की इस प्रक्रिया मे साधक अपने मन को किसी दिव्य रूपवान विषय पर स्थिर करता है । कभी वह अपने देह को ही प्रभु के रूप मे चित्रित करके उस पर विभिन्न कल्पनाएँ करता हुआ केन्द्रित हो जाता है, कभी रूपवान अरिहत परमात्मा - अर्थात् तीर्थंकर देव, श्रथवा अन्य महान् ग्रात्माओ के श्रु तानुश्रत रूपो किंवा स्वरूप के अनुसार कल्पित रूपो को अपने मानस-चक्षु के समक्ष प्रकित करता है । जैसे भगवान् के समवसरण की रचना, उसमे प्रभु को उपदेश देते हुए देखना और उस पर चिंतन करना अथवा उनकी ध्यानसाधना के चित्र मन से तैयार करना और उन पर मन को जमा देना आदि विविध रूपो की कल्पना की जा सकती है । महापुरुषो के जीवन सम्बन्धी विविध रूपो पर ध्यान को केन्द्रित करने से मन का भटकना वन्द हो जाता है । फलतः वह एक शुभ व विशुद्ध केन्द्र पर स्थिर होता है, सकल्प बलवान वनते है और इस प्रकार हमेशा शुभ एव पवित्र सकल्प आदि करने का अभ्यास हो जाता है ।
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy