SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११ : - जीर्ण-शीर्ण धार्मिक क्रिया-कलापो मे थोडा सा नया हेर-फेर क्या किया — हमने उसे फूट का प्रमाण ही मान लिया — भेदभाव का श्रादर्श सिद्धान्त ही समझ लिया । जैन समाज का श्वेताम्बर और दिगम्बर संप्रदाय तथा श्वेताम्बर सप्रदाय मे भी, मूर्तिपूजक, स्थानक - वासी आदि के भेद और दिगम्बर सप्रदाय मे भी तारण पथ तथा तेरह पथ आदि की विभिन्नता इसी मनोवृत्ति के प्रतीक है। फूट का रोग फैल रहा है, धर्म के नाम पर निन्दनीय प्रवृत्तियाँ चल रही है, सर्वत्र एक भयंकर अराजकता फैली हुई है । 1 समाज मे दो श्रेणी के मनुष्य होते है, एक पडित वर्ग के लोग, जिनकी आजीविका एव प्रतिष्ठा शास्त्रो पर चलती है । पडित वर्ग मे कुछ तो वस्तुत निस्पृह, त्यागी, स्व-पर श्रेय के साधक, समभावी होते हैं और कुछ इसके विपरीत सर्वथा स्वार्थजीवी, दुराग्रही और प्रतिष्ठा प्रिय । दूसरी श्रेणी गतानुगतिक, परपरा प्रिय, रूढवादी श्रज्ञानियो की होती है । और कहना नही होगा कि पडित वर्ग मे अधिकता प्राय उन्ही लोगो की होती है, जो स्वार्थजीवी और दुराग्रही, प्रतिष्ठा प्रिय होते है । समाज पर प्रभाव भी उन्ही का रहता है। फल यह होता है कि जनता को वास्तविक सत्य की प्रेरणा नही मिल पाती । इसके विपरीत, एक-दूसरे को झूठा आदि कठोर शब्दो से सम्बोधित कर घोर हिंसा की, पारस्परिक द्वेष की प्रेरणा ही प्राप्त होती है । शुद्ध धर्माचरण का प्रतिबिंब हमारे व्यवहारो मे श्राए तो कैसे ? हम तो पाखडाचरण, साप्रदायिक द्वेष के भक्त बन जाते हैं, व्यवहाराचरण को धर्माचरण से सर्वथा अलग मान लेते हैं । हमारे साम्प्रदायिक हठ का राग हमे दबा लेता है । सप्रदाय के कर्णधार हमे सत्य की ओर नही ले जाते, प्रत्युत भ्राति मे डाल देते हैं । धर्म के नाम पर आज जो हो रहा है, वह सत्य की असाधारण विडम्बना नही तो और क्या है ? धार्मिक मनुष्य के लिए धर्माचरण केवल कुछ प्रचलित क्रियाकाण्डो की परपरा तक ही सीमित नही है, वस्तुतः प्रत्येक धर्माचरण का प्रतिबिम्ब हमारे नित्यप्रति के व्यवहाराचरण मे उतरना चाहिए । सक्षेप मे कहे, तो शुद्ध और सत्य व्यवहार का नाम ही तो धर्म है। जब हम व्यवहाराचरण को धर्माचरण से सर्वथा अलग वस्तु समझते हैं, तब बडी गडबडी पैदा हो जाती है और सबका सब साम्प्रदायिक ,
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy