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________________ प्राकृत भाषा मे ही क्यो ? का अवलोकन करने के बाद ही अपना विचार स्थिर करते है । अतएव प्राकृत पाठो की जो बहुत पुरानी परपरा चली आ रही है, वह पूर्णत उचित है। उसे बदल कर हम कल्याण की ओर नही जाएंगे, प्रत्युत सत्य से भटक जाएंगे। . प्राकृत एकता की प्रतीक को मोह लेहा संस्कृति के नन्दराज जी सुसा था। मैंने पूछा व्यवहारदृष्टि से भी प्राकृत-पाठ ही औचित्य पूर्ण हैं। हमारी धर्म-क्रियाएँ मानव-समाज की एकता की प्रतीक है। साधक किसी भी जाति के हो, किसी भी प्रात के हो, किसी भी राष्ट्र के हो, जब वे एक ही स्थान मे, एक ही वेश-भूषा मे, एक ही पद्धति मे, एक ही भाषा मे धार्मिक पाठ पढते हैं, तो ऐसा मालूम होता है, जैसे सब भाई-भाई हो, एक ही परिवार के सदस्य हो । क्या कभी आपने मुसलमान भाइयो को ईद की नमाज पढ़ते देखा है ? हजारो मस्तक एक साथ भूमि पर झुकते और उठते हुए कितने सुन्दर मालूम होते हैं ? कितनी गभीर नियमितता । हृदय को मोह लेती है। एक ही अरबी भाषा का उच्चारण किस प्रकार उन्हे एक ही सस्कृति के सूत्र मे बाधे हुए है ? लेखक के पास एक बार देहली मे श्री आनन्दराज जी सुराना एक जापानी व्यापारी को लाए, जो अपने आपको बौद्ध कहता था। मैंने पूछा कि "धार्मिक पाठ के रूप मे आप क्या पाठ पढा करते हो ?"-तो उसने सहसा पाली भाषा के कुछ पाठ अपनी अस्फुट-सी ध्वनि मे उच्चारण किए। मैं आनन्द-विभोर हो गया-अहा | पाली के मूल पाठो ने किस प्रकार भारत, चीन, जापान आदि सुदूर देशो को भी एक भ्रातृत्व के सूत्र मे बाँध रक्खा है। अस्तु, सामायिक के मूल पाठो का भी मैं यही स्थान देखना चाहता हू । गुजराती, बगाली, हिन्दी और अग्रजी आदि की अलग-अलग खिचडी मुझे कतई पसन्द नही। यह विभिन्न भाषायो का मार्ग हमारी प्राचीन सास्कृतिक एकता के लिए कुठाराघात सिद्ध होगा। नावश्यक अव रही भाव समझने की बात | उसके सम्बन्ध मे यह आवश्यक है कि टीका-टिप्पणियो के आधार से थोडा-बहुत मूल
SR No.010073
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1969
Total Pages343
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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