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________________ [ ६४ ] भय, मैथुन, परिग्रहरूप संज्ञा इन सबों से भिन्न है । यहां उपादेयरूप अनन्तसुखका घाम जो शुद्ध जीव उससे भिन्न जन्मादिक हैं, वे सब त्याज्य हैं, एक आत्मा ही उपादेय है, यह तात्पर्य जानना ॥६६॥ बुद्धवादीनि स्वरूपाणि शुद्ध निश्चयेन जीवस्य न सन्ति तर्हि कस्य सन्तीति प्रश्ने देहस्य भवन्तीति प्रतिपादयति देहहं उभर जर मरणु देहहं वराणु विचित्तु । देहहं रोय वियाणि तुहुं देहहं लिंगु विचित्तु ॥ ७० ॥ देहस्य उद्भव: जरामरणं देहस्य वर्णः विचित्रः । देहस्य रोगान् विजानीहि त्वं देहस्य लिङ्ग विचित्रम् ॥७०॥ आगे जो शुद्धनिश्चयनयकर जन्म-मरणादि जीवके नहीं हैं, तो किसके हैं ? ऐसा शिष्य के प्रश्न करनेपर समाधान यह है, कि ये सब देहके हैं ऐसा कथन करते हैं- श्रीगुरु कहते हैं, कि हे शिष्य, ( त्वं ) तू ( देहस्य) देहके (उद्भवः) जन्म ( जरामरणं) जरा मरण होते हैं, अर्थात् नया शरीर धरना, विद्यमान शरीर छोड़ना, वृद्ध अवस्था होना, ये सब देहके जानो, ( देहस्य) देहके ( विचित्रः वर्णः ) अनेक तरह के सफेद, श्याम, हरे, पीले, लालरूप पांच वर्ण, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ये चार वर्ण, ( देहस्य) देह ( रोगान्) वात, पित्त, कफ, आदि अनेक रोग (देहस्य ) देहके (विचित्रं लिंगं) अनेक प्रकारके स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसकलिंगरूप चिन्हको अथवा यति लिंग का और द्रव्यमनको ( विजानीहि ) जान | भावार्थ- शुद्धात्माका सच्चा श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेदरत्नत्रयकी भावनासे विमुख जो राग, द्वेष, मोह उनकर उपार्जे जो कर्म उनसे उपजे जन्म मरणादि विकार हैं, वे सब यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके हैं, तो भी निश्चयनयकर जीवके नहीं हैं, देहसंबन्धी हैं ऐसा जानना चाहिए । यहां पर देहादिकमें ममतारूप विकल्पजालको छोड़कर जिस समय यह जीव वीतराग सदा आनन्दरूप सब तरह उपादेय रूपं निज भावोंकर परिणमता है, तब अपना यह शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय जानो || ७० ॥ अथ देहस्य जरामरणं दृष्ट्वा मा भयं जीव कार्षीरिति निरूपयतिदेहं पेक्खवि जर मरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामरु वंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि ॥ ७१ ॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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