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________________ [ ५६ ] तानि पुनः जीवानां योगिन् अष्टौ अपि कर्माणि भवन्ति । येः एव च्छादिताः जीवाः नैव आत्मस्वभावं लभन्ते ।।६१॥ आगे कहते हैं, वे कर्म आठ हैं, जिनसे संसारी जीव बन्धे हैं, कहते-श्रीगुरु अपने शिष्य मुनिसे कहते हैं, कि (योगिन्) हे योगी, (तानि पुनः कर्माणि) वे फिर कर्म (जीवानां अष्टौ अपि) जीवोंके आठ ही (भवंति) होते हैं, (यैः एव झपिताः) जिन कर्मोंसे ही आच्छादित (ढंके हुए) (जीवाः) ये जोवकर (आत्मस्वभावं) अपने सम्यक्त्वादि आठ गुणरूप स्वभावको (नैव लभते) नहीं पाते । अब उन्हीं आठ गुणोंका व्याख्यान करते हैं "सम्मत्त" इत्यादि-इसका अर्थ ऐसा है, कि शुद्ध आत्मादि पदार्थों में विपरीत श्रद्धान रहित जो परिणाम उसको क्षायिकसम्यक्त्व कहते हैं, तीन लोक, तीन कालके पदार्थोंको एक ही समयमें विशेषरूप सबको जानें, वह केवलज्ञान है, सब पदार्थोंको केवलहष्टि से एक ही समयमें देखे, वह केवलदर्शन है । उसी केवलज्ञानमें अनन्तज्ञायक (जाननेकी) शक्ति वह अनन्तवीर्य है, अतीन्द्रियज्ञानसे अमूर्तीक सूक्ष्म पदार्थोंको जानना, आप चार ज्ञानके धारियोंसे न जाना. जावे वह सूक्ष्मत्व हैं, एक जीवके अवगाह क्षेत्र में (जगहमें) अनन्ते जीव समा जावें, ऐसी अवकाश देनेकी सामर्थ्य वह अवगाहनगुण है, सर्वथा गुरुता और लघुताका अभाव अर्थात् न गुरु न लघु-उसे अगुरु-लघु कहते हैं, और वेदनीयकर्मके उदयके अभावसे उत्पन्न हुआ समस्त बाधा रहित जो निराबाधगुण उसे अव्याबाध कहते हैं । ये सम्यक्त्वादि आठ गुण जो सिद्धोंके हैं, वे संसारावस्थामें किस किस कर्मसे ढंके हुए हैं, इसे कहते हैं-सम्यक्त्वगुण मिथ्यात्वनाम दर्शनमोहनीयकर्मसे आच्छादित है, केवलज्ञानावरणसे केवलज्ञान ढका हुआ है, केवलदर्शनावरणसे केवलदर्शन ढका है, वीर्यान्तरायकर्म से अनन्तवीर्य ढका है, आयुःकर्मसे सूक्ष्मत्वगुण ढका है, क्योंकि आयुकर्म उदयसे जब जीव परभवको जाता है, वहां इन्द्रियज्ञानका धारक होता है, अतीन्द्रियज्ञानका अभाव होता है, इस कारण कुछ एक स्थूलवस्तुओंको तो जानता है, सूक्ष्म को नहीं जानता, शरीरनामकमेके उदयसे अवगाहनगुण आच्छादित है, सिद्धावस्थाके योग्य विशेषरूप अगुरुलघगुण नामकर्म के उदयसे अथवा गोत्रकर्म के उदयसे ढक गया है, क्योंकि गोत्रकर्मके उदयसे जव नीचगोत्र पाया, तब उसमें तुच्छ या लघु कहलाया, और उच्च गोत्र में बड़ा अर्थात् गुरु कहलाया और वेदनीयकमंके उदयसे अव्यावाधगुण ढक गया, क्योंकि उसके उदय साता असातारूप सांसारिक सुख दुःखका भोक्ता हुआ ।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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