SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ३७ ] लिंगादि ) कर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प- जालोंको निर्विकल्पसमाधि से जिस समय नाश करता है, उसी समय उपादेयरूप मोक्ष सुखका कारण होनेसे उपादेय हो जाता है ||४०|| अथ यस्य परमात्मनः केवलज्ञानप्रकाशमध्ये जगद्वसति जगन्मध्ये सोऽपि वसति तथापि तद्रूपो न भवतीति कथयति - जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग अब्भंतरि जो जि । जगि जि वसंतु वि जगु जि ए वि सुखि परमप्पउ सो जि ॥ ४१ ॥ यस्य अभ्यन्तरे जगत् वसति जगदभ्यन्तरे य एव । जगति एव वसन्नपि जगत् एव नापि मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥४१॥ आगे जिस परमात्माके केवलज्ञानरूप प्रकाश में जगत् बस रहा है, और जगत् के ' मध्य में वह ठहर रहा है, तो भी वह जगत्रूप नहीं है, ऐसा कहते हैं - (यस्य) जिस आत्मारामके (अभ्यंतरे) केवल ज्ञान में (जगत् ) संसार ( वसति) बस रहा है, अर्थात् प्रतिबिम्बित हो रहा है, प्रत्यक्ष भास रहा है, (जगदभ्यंतरे) और जगत् में वह बस रहा है, अर्थात् सबमें व्याप रहा है । वह ज्ञाता है और जगत् ज्ञेय है, (जगति एव वसन्नपि ) संसार में निवास करता हुआ भी ( जगदेव नापि ) निश्चयनयकर किसी जगत्की वस्तुसे तन्मय ( उस स्वरूप ) नहीं होता, अर्थात् जैसे रूपी पदार्थको क्षेत्र देखते हैं, तो भी उनसे जुदे ही रहते हैं, इस तरह वह भी सबसे जुदा रहता है, ( तमेव ) उसीको (परमात्मानं ) परमात्मा ( मन्यस्व) हे प्रभाकरभट्ट, तू जान । भावार्थ - जो शुद्ध, बुद्ध सर्वव्यापक सबसे अलिप्त, शुद्धात्मा है, उसे वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थिर होकर ध्यान कर । जो केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्य समयसार है, उसका कारण वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानरूप निजभाव ही उपादेय हैं ||४१|| : अथ देहे वसन्तमपि हरिहरादयः परमसमाधेरभावादेव यं न जानन्ति स परमात्मा भवतीति कथयन्ति - देहि वसंत विहर-हर वि जं अज वि मुरांति । परम- समाहितवेण विणु सो परमप्पु भांति ॥४२॥ 14
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy