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________________ । ३४ ] कम्म-णिवद्ध वि जोइया देहि वसतु विं जो जि। होइ ण सयलु कयां वि फुड मुणिं परमप्प सो जि ॥३६॥ कर्मनिबद्धोऽपि योगिन् देहे वसन्नपि य एव । भवति न सकलः कदापि स्फुटं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥३६॥ आगे शुद्धात्मासे जुदे कर्म और शरीर इन दोनोंकर अनादिकर बंधा हुआ यह आत्मा है, तो भी निश्चयनयकर शरीरस्वरूप नहीं है, यह कहते हैं-(योगिन्) हे योगी (यः) जो यह आत्मा (कर्मनिबद्धोऽपि) यद्यपि कर्मोंसे बंधा है, (देहे वसन्नपि) और देहमें रहता भी है, (कदापि) परन्तु कभी (सकलः न भवति) देहरूप नहीं होता, (तमेव) उसीको तूं (परमात्मानं) परमात्मा (स्फुट) निश्चयसे (मन्यस्व) जान । . भावार्थ -परमात्माकी भावनासे विपरीत जो राग, द्वेष, मोह हैं, उनकर यद्यपि व्यवहारनयसे बंधा है, और देहमें तिष्ठ रहा है, तो भी निश्चयनय से शरीररूप नहीं है, उससे जुदा ही है, किसी कालमें भी यह जीव जड़ न तो हुआ, न होगा, उसे हे प्रभाकरभट्ट, परमात्मा जान । निश्चयकर आत्मा ही परमात्मा है, उसे तू वीतराग स्वसंवेदनज्ञानकर चितवन कर । सारांश यह है, कि यह आत्मा सदैव वीतरागनिर्विकल्प समाधिमें लीन साधुओंको तो प्रिय है किन्तु मूढोंको नहीं ॥३६।।। यः परमार्थेन देहकमरेहितोऽपि गूढात्मनों सकले इति प्रतिभातीत्येवं निरूपयतिजो परमत्थे णिकल वि कम्म विभिण्णउ जो जि। मूढा सयलु भणंति फुडु मुणि परमप्पाउ सो जि ॥३७।। यः परमार्थेन निष्कलोऽपि कर्मविभिन्नो य एव । _ मूढाः सकलं भणन्ति स्फुटं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥३७॥ आगे निश्चयनयकर आत्मा देह और कर्मोंसे रहित है, तो भी मूढ़ों (अज्ञानियों) को शरीरस्वरूप मालूम होता है, ऐसा कहते हैं--(यः) जो आत्मा (परमार्थन) निश्चयनयकर (निष्कलोऽपि) शरीर रहित है, (कर्मविभिन्नोऽपि) और कर्मोंसे भी जुदा है, तो भी (मूढाः) निश्चय व्यवहार रत्नत्रयको भावनासे विमुख मूढ़ (सकलं) शरीरस्वरूप ही (स्फुट) प्रगटपनेसे (भणंति) मानते हैं, सो हे प्रभाकरभट्ट, (तमेव) उसीको (परमात्मानं) परमात्मा (मन्यस्व) जान, अर्थात् वीतराग सदानन्द निर्विकल्पसमाधिमें रहके अनुभव कर ।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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