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________________ २१० स्वयंभू स्तोत्र टीका उत्थानिका - और भी भगवान की महिमा कहते हैं- सभ्यानामभिरुचितं दधासि गुणभूषणं श्रिया चारुचितम् । मग्नं स्वस्यां रुचितं जयसि च मृगलांछनं स्वकान्त्या रुचितम् । १४० । अन्वयार्थ - हे जिन ! श्राप ( सभ्यानामभिरुचितम् ) समवसरण स्थित भव्यों को प्रिय ऐसे ( श्रिया चारुचितं ) केवलज्ञानादि लक्ष्मी से प्रत्यन्त पुष्ट ( गुणभूषणं ) ऐसे श्रनेक गुणरूपी शोभा को ( दधासि ) धारण कर रहे हो तथा श्राप ( स्वकान्त्या ) अपने शरीर की कांति से ( स्वस्यां रुचिमग्न ) श्रापका शरीर की शोभा में डूबे हुए ( रुचितं ) जगत को प्रिय ( तं मृगलांछनं च ) उस मृग लक्षणं वाले चन्द्रमा को भी ( जयसि ) जीत लेते हो । भावार्थ- आपके पास अन्तरंग केवलज्ञानादि गुरण व बाहर क्षुधादि दोष रहित परम शान्त शरीर आदि गुरण विद्यमान हैं जो सब भव्यों को अत्यन्त प्रिय हैं । तथा आपकी शरीर की चमक ऐसी विशाल है कि उसमें चन्द्रमा ऐसा डूब जाता है कि कहीं पता नहीं चलता अर्थात् आपने अपने शरीर की शोभा से चन्द्रमा को भी जीत लिया है । त्रोटक छन्द हे प्रभु गुरणभूषण सारधरें श्री सहित सभा जन हर्ष करें। तुम वपु कांती अति श्रनुपम है, जगप्रिय शशि जीते रुचितम है ॥ १४० ॥ उत्थानिका -- और भी भगवान में क्या २ गुण हैं सो कहते हैं त्वं जिन ! गतमदमायस्तव भावानां मुमुक्षुकामद मायः । श्रेयान् श्रीमदमायस्त्वया समादेशि सप्रयाम दमाध्यः ॥ १४१ ॥ श्रन्वयार्थ -- ( जिन ) है जिनेन्द्र ! ( त्वं ) श्रापसें । गतमदमायः ) मान व माया नहीं है अथवा जो भव्यजीव प्रापका श्राराधन करते हैं वे मान व माया से जाते हैं छूट ( तव ) श्रापका ( भावानां मायः ) जीवादि पदार्थों का जो प्रमाण ज्ञान है वह (मुमुक्षुकामद ) मोक्ष की इच्छा रखने वालों को इच्छा को पूर्ण करने वाला है तथा वह (श्रेयान् ) बाधा रहित परम हितकर है । ( त्वया । ग्रापने ( श्री मदमायः ) लक्ष्मी के मव के नाश
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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