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________________ २०६ स्वयंभू स्तोत्र टीका (तथा बुभूषवः) अापके समान होने की इच्छा करते हुए । [ शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ] आपके शांतिमय उपदेश की शरण प्राते हुए। ____ भावार्थ-आप केवलज्ञानी के उपदेश से सरल परिणामी भव्य जीवों ने तो मोक्ष पाया हो परन्तु बड़े २ कट्टर एकांतमती तपस्वी भी आपके अद्भुत महात्म्य को देखकर अपने मिथ्या प्रात्मज्ञान रहित तप को असार जानकर आपकी शरण में आते हुए तथा आपसे धर्मोपदेश लाभ कर जैन साधु को अपना सच्चा हित करते भए । पद्धरी छन्द प्रभु देख कर्म से रहित नाथ, बनवासी तपसी प्राये साथ । निज धम असार लख भाप चाह, धरकर शरण ली मोक्षराह ।। १३४ ॥ उत्थानिका-ऐसे भगवान की तरफ मेरा क्या कर्तव्य उसे प्राचार्य कहते हैं-- स सत्यविधातपसां प्रणायकः समग्रधीरुग्रकुलाम्बरांशुमान् ।। मया सदा पार्श्वजिनः प्रणम्यते विलीनमिथ्यापथदृष्टि विनमः ।। अन्वयार्थ- (सः पार्श्वजिनः) वह श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर ( उग्रकुलांबुरांशुमान ) उग्रवंशरूपी आकाश में चन्द्रमा के समान प्रकाशमान [ समग्रधीः ] केवलज्ञानी [ सत्यविद्यातपसां प्रणायकः] सत्यज्ञान व तप का साधन बताने वाले विलीनमिथ्यापथदृष्टिविभ्रमः] व जिन्होंने मिथ्या एकान्त मार्गरूपी मतों के भ्रम को अपने अनेकांत मत से दूर कर दिया है ऐसे प्रभु [मया] मुझ समन्तभद्र द्वारा [ सदा प्रणम्यते ] सवा प्रणाम किये जाते हैं । 'भावार्थ-श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि मैं श्री पार्श्वनाथ भगवान को सदा प्रणाम करता हूं क्योंकि प्रभु ने अपने उग्रवंश को उज्ज्वल किया, केवलज्ञान का लाभ किया, सत्य मार्ग जीवों को बताया व एकांत मत के अन्धकार को अनेकांत मल के प्रकाश से दूर हटाया। पद्धरी छन्द श्रीपार्श्व उग्र कुल नभ सुचन्द्र, मिथ्यातम हर सत ज्ञानचन्द्र । केवलज्ञानी सत मग प्रकाश, हूं नमत सदा रख मोक्ष प्राश ॥१५॥ A
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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