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________________ श्री नमिनाथ स्तुति १६५ लिये श्राप परम दयावान ने पूर्ण अहिंसा की सिद्धि के लिए अन्तरंग बहिरग परिग्रह का .. त्याग कर दिया । क्योंकि जहां परिग्रह होगा वहां ही कुछ न कुछ प्रारम्भ करना पड़ेगा। क्षेत्र, मकान, गाय,भैसादि, धान्य, सुवर्ण, चांदो, दासी, दास, कपड़े, वर्तन इस तरह १० प्रकार बाहरी परिग्रहों को मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद, नपुंसकवेद इस तरह १४ प्रकार अन्तरंग परिग्रह को त्याग दिया, इन सब भावों से ममता हटाली। तथा पूर्ण अहिंसा की ही सिद्धि के लिये श्राप जन्म के . बालक के समान वस्त्राभूषण रहित नग्न दिगम्बर साधु के रूप में रहे । प्रापने जटा सहित, भस्म सहित व अन्य वल्कल, मृगछाला आदि सहित किसी भी विकारमय वेध को धारण न किया । पात्रकेसरिस्तोत्र मेंकहा है-- जिनेश्वर ! न ते मतं पटकवस्त्रपावग्रहो । विमृश्य सुखकारणं स्वयमशक्तकः कल्पितः ।। प्रथायमपि सत्पथस्तव भवेद् वृथा नग्नता । न हस्तसुलभे फले सति तरुः समारुह्यते ॥ ४ ॥ भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! आपके मत में साधु के लिये उन आदिके वस्त्र व कपास का वस्त्र व भिक्षा लेने का पात्र आदि का ग्रहण नहीं बताया है, क्योंकि ये सब हिंसा का हेतु है। जो स्वयं शीतादि परीषह सहने को असमर्थ हैं उन्होंने ही सुख का कारण समझकर : साधु के लिये वस्त्रादि का रखना बताया है । यदि वस्त्र सहित साधु का भी मार्ग महादत . हो जावे व यथार्थ पूर्ण चारित्रमय मोक्षमार्ग हो जावे। तब फिर साधु को नग्न रहना वृथा हो हो जावे, क्योंकि यदि हाथ से ही फल आ जावे तो वृक्ष पर चढ़ने का परिश्रम कौन करे? सृग्विणी छन्द हिसा जगत् ब्रह्म परमं कही है. जहां प्रल्प प्रारम्भ वहां नहीं रही है । अहिंसा के अर्थ तजा द्वय परिग्रह, दयामय प्रभू वेप छोडा उपधिमय ॥ उत्थानिका-अापके शरीर का रूप ही बताता है कि आप परम वीतराग हैं। ऐसा कहते हैं-- वपुभूषादेवव्यवधिरहितं शान्तिकरणं। यतस्ते संचष्टे स्मरशरविषातंकविजयम् ।। विना भीमः शस्त्रैरदयहृदयामर्षविलयं । ततस्त्वं निर्मोहः शरणमसि नः शांतिनिलयः ॥२०॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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