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________________ १८८ स्वयंभू स्तोत्र टीका नित्य मानते, कोई सर्वथा क्षणिक मानते । परन्तु यह चर अचररूप या चेतन प्रचेतन रूप जगत हरसमय नित्य प्रनित्य स्वरूप है या उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप है । जगत जीव अजीव द्रव्यों का समुदाय है । ये सब द्रव्य सत्रूप हैं । न कभी उपजे हैं न कभी नष्ट होंगे । परन्तु इनमें परिणमन या पर्याय का पलटना सदा हुआ करता है । पर्याय क्रमवर्ती होती हैं । इसलिये पहली पर्याय का नाश होकर उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है, इसलिये यह जगत् पर्याय के पलटने की अपेक्षा उत्पाद व्ययरूप है या अनित्य है । परन्तु गुरणों के बने रहने की अपेक्षा श्रव्य या नित्य है | सुवर्ण बना रहता है उससे कुण्डल, कड़ा, बाली पर्यायें उत्पन्न होती हैं व नाश होती हैं । जीव वही बना रहता है, यही कभी देव, फिर मनुष्य, फिर पशु, फिर नारकी इस तरह पर्यायों को बदला करता है। शुद्ध द्रव्यों में मात्र स्वभाव सदृश पर्यायें होती हैं । कोई द्रव्य बिना परिणमन के नहीं रहता है, इसलिए द्रव्य हरएक क्षण उत्पत्ति विनाश व ध्रौव्य स्वरूप है । ऐसा ही सच्चा स्वरूप आपने कहा है । इसलिये आप वास्तव में सर्वज्ञ हैं । मोक्षपंचाशिका में कहा है गुणपर्ययतादात्म्य विशिष्टं द्रव्यमुच्यते । उत्पत्तिव्ययनयत्यं पर्यायाः तस्य शाश्वताः ॥ ८ ॥ भावार्थ - - द्रव्य वही कहा जाता है जो गुरण पर्यायों को सदा रखने वाला हो । द्रव्य में उत्पत्ति व्यय व धौव्यपना सदा रहता है। गुरण द्रव्य के साथ सदा रहते हैं, यही धौव्यपना है । पर्यायों में सदा उत्पत्ति विनाश हुना करता है । सृग्विणी छन्द जनन व्यय धीव्य लक्षण जगत् प्रतिक्षणं । चित् प्रचित् श्रादि से पूर्ण यह हरक्षणं ॥ यह कथन प्रापका चिह्न सर्वज्ञ का । है वचन प्रांपका प्राप्त उत्कृष्ट का ।। ११४।। उत्थानिका - भगवान ने आठ कर्मों का नाश किया व मोक्ष पाई, स्तुतिकार भी उसी फल की भावना करता है दुरितमल कलंकमष्टकं निरुपमयोगबलेन निर्दहन् । श्रभवदभव सौख्यवान् भवान् भवतु ममापि भवोपशांतये ॥११५॥ के अन्वयार्थ - (भवान्) आपने ( निरुपमयोगवलेन ) उपमा रहित परम शुक्लध्यान बल से (अष्टकं दुरित मलकलंक) आठ कर्म महापाप रूप मल कलंक को ( निर्दहन् ) भस्म कर दिया और आप ( ग्रभवसौख्यवान् ) संसारातीत श्रतीन्द्रियन्त सुख के घनी
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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