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________________ १८३ श्री मल्लिनाथ स्तुति शिष्य साधुगरणों का समूह शोभता हा। भगवान की वाणी से जो प्रात्मधर्म प्रगटा, जो सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र की एकता रूप परम आत्मानुभवरूप है वह सच्चा धर्मरूपी जहाज है। इस भयानक संसार सागर में डूबते हए भयभीत प्राणियों को तारने के लिये वही समर्थ है । जो भव्यजीव निश्चयं रत्नत्रयमई आत्मानुभव का शरण लेते हैं वे अवश्य कर्म काटकर मुक्त हो जाते हैं । ऐसा ही यथार्थ मोक्षमार्ग है । नागसेन मुनि ने तत्त्वानुशासन में कहां है यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्यात्मा। दृगवगमचरणरूपस्य निश्चयान्मुक्तिहेतुरिति जिनोक्तिः ॥ ३२ ॥ भावार्थ--जो आत्मा वीतरागी होकर अपने प्रात्मा का आत्मा हो के द्वारा अपने प्रात्मा में श्रद्धान करता हझा अनुभव करता है वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र रूप होता हा निश्चय से मोक्षमार्ग है ऐसा जिनेन्द्र का कथन है । छन्द बोटक जिन चन्द्र वचन किरणें चमके चहु मोर शिष्य यति ग्रह दमके। निज प्रात्म तीर्थ अति पावन है, भवसागर जन इक तारन है || १०६॥ . उत्थानिका-शंकाकार कहता है कि पहले कहे विशेषरण सहित भगवान ने किस तरह कर्मों का क्षय किया जिससे उनको सर्व पदार्थों का ज्ञान हुआ व उनको मोक्ष प्राप्त हुअा, इसका समाधान करते हैं यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्निानमनन्तं दृरितमधाक्षीत् । तं जिनसिंहं कृतकरणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥११०॥ अन्वयार्थ- ( यस्य च ) जिस मल्लिनाथ की ( शुक्लं ध्यानं ) शुक्लध्यानरूपी ( परमतपोग्निः ) उत्कृष्ट तप रूपी अग्नि ने ( अनन्तं दुरितं । अनन्त कर्म को( अधाभीत् । भस्म कर डाला । तं ) उस ( कृतकरगोयं ) कृतकृत्य । जिनसिंह ) जिनेन्द्रों में प्रधान ( अशल्यं ) व मायादि शल्यरहित । मल्लि ) मल्लिनाथ भगवान को ( शरणं इतोऽस्मि । शरण में प्राप्त होता हूँ । भावार्थ---श्री मल्लिनाथ तीर्थकर ने प्रथम पृथक्त्व वितर्क विचार शुक्लध्यान के
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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