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________________ श्री अरनाथ स्तुति १७३ भावार्थ-जो अत एकान्त, नित्यैकान्त, क्षणिकैकान्त आदि एक ही पक्ष के सर्वथा माननेवाले तपस्वी हैं वे ऐसे अपने एकान्त मत के अहंकार में चूर हैं कि अपने मत में जो अनेक दोष आते हैं उनको जानबूझकर छिपाते हैं । जैसे हाथी अपनी आँखों को ऐसी मिली हुई रखता है कि देखता हुआ भी न देखनेवाले के समान अपने को झलकाता है । इसी तरह ये अपने दोषों पर तो ध्यान नहीं देते हैं तथा अनेकान्त जो यथार्थ मत है उसके खण्डन करने के लिये अपनी तैयारी बताते हैं । प्राचार्य कहते हैं कि उनकी बुद्धि दुर्मोह से ऐसी मैली हो रही है कि वे श्री जिनेन्द्र देव के अनेकान्त मत के समझने की योग्यता ही नहीं रखते हैं। वे विचारे इस योग्य नहीं हैं कि अपना पक्ष समर्थन कर सकें व अनेकान्त का खण्डन कर सके। भावाथ यह है कि अनेकान्त मत भिन्न २ अपेक्षा से भिन्न २ स्वभावों को झलकाता है । इसलिये उसमें विरोध प्रादि कोई दोष नहीं श्रा सकते हैं। जो पक्षपात छोड़कर अनेकान्त को समझेगा उसे वस्तु स्वरूप की यथार्थता स्वयं झलक जायगी। पद्धरी छन्द । एकान्ती तपसी मान धार, निज दोष निरख गज नयन धार । ते अनेकान्त खण्डन प्रयोग्य, तुझ मत लक्ष्मी के हैं प्रयोग्य MET . उत्थानिका-कोई शंका करता है कि यह सब कहना ठीक नहीं है, वस्तु तो - वचन अगोचर है, इसका समाधान करते हैं ते तं स्वघातिनं दोषं शमीकर्ता मनीश्वराः । त्वद्विषः स्वहनो वालास्तत्त्वावक्तव्यतां श्रिताः ॥१०॥ अन्वयार्थ- ते ) वे एकान्तवादी ( तं स्वघातिनं दोपं ) अपने एकान्त मत के खण्डन करनेवाले दोष को ( शमीकतु ) दूर करने के लिये [ अनीश्वराः) असमर्थ होकर [ त्वद्विषः ] आपके अनेकान्त मत से द्वष करते हैं ( स्वहनाः) व ग्राप अपना बिगाड़ करते हैं ऐसे ही (वालाः) अज्ञानी लोगों ने (तत्वावक्तव्यतां श्रिताः) यही आश्रय पकड़ लिया कि वस्तु का स्वरूप सर्वथा कहा ही नहीं जा सकता। भावार्थ-जो निवुद्धि हैं व तत्त्व के सच्चे स्वरूप के विचार करने में चतुर नहीं __ हैं वे एकान्त मत का हठ पकड़े हुए उन दोषों का निवारण नहीं कर सकते हैं जो एकान्त
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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