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________________ श्री श्ररनाथ जिन स्तुति पद्धरी छन्द तुम रूप परम सुन्दर विराज, देखन को उमगा इन्द्र राज । द लोचन परकर सहस नयन, नहि तृप्त हुआ श्राश्चर्य भरन ॥ ८ ॥ उत्थानिकान कहते हैं कि भगवान भरनाथ ने प्रतरंग मोह शत्रु को कैसे जीता मोहरूपी रिपुः पापः कषायभटसाधनः । दृष्टि सम्पदुपेक्षास्त्रैस्त्वया धीर ! पराजितः ॥ ६० ॥ १६३ अन्वयार्थ - (मोहरूपी रिपुः ) जीव का मोहनीय कर्म रूपी महान शत्रु है [ पापः ] ओ महापापी है जीव को स्वरूप से गिराने वाला है [ कषायभटसाधनः ] कोष मान माया लोम चार कषायरूपी योद्धा जिसकी सेना है ऐसे महान शत्रु को [ धीर ] हे परीषहों के पड़ने पर भी प्रक्षोभ - चित्त स्वामी ! प्ररनाथ [ त्वया ] आपने ( दृष्टिसम्पत् उपेक्षाऽस्त्रः ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यञ्चारित्रमई रत्नत्रय के दिव्य शस्त्रों के द्वारा ( पराजितः ) जीत लिया । भावार्थ-नादिकाल से जीव का महान शत्रु मोहनीय कर्म । यही इस संमारी प्राणी को रागी द्वेषी मोही बनाकर प्रात्मविरोधी मार्गों में पटक देता है । इसी का भुलाया हुआ यह जीव अपने श्रात्मा के स्वरूप में स्थिरता को नहीं पाता है । इसके साथी क्रोधादि चार कषाय हैं । इन्हीं के कारण यह प्रारंगी ज्ञानांवररणादि श्राठों कर्मों का बंध करता है और उस कर्म के उदघवंश संसार वन में भटका करता है । इस मोह को जीतना ही मानों सर्व कर्मों को जीत लेना है । है अरनाथ ! प्रापने साधु अवस्था में खूब ध्यान लगाया - निश्चय सम्यग्दर्शन शुद्धात्मा की यथार्थ प्रतीति है, निश्चय सम्यग्ज्ञान शुद्धात्मा का यथार्थ ज्ञान है, निश्चय सम्परचारित्र रागद्वषं छोड़ अपने ही शुद्ध आत्मा के स्वरूप में थिरता पाना है। जहां इन तीनों की एकता होती है वहां स्वानुभव या श्रात्मध्यान पैदा होता है । इसी ध्यान के बल से प्रभु ने मोह का बल घटाया । जब क्षपक श्रेणी प्रारूढं हुए तब इस मोह को क्षय करते २ सूक्ष्मलोभ नाम के दसवें गुरणस्थान के अन्त में इस मोह कर्म का सर्वथा क्षय कर डाला | तब प्रभु क्षीरणमोह वीतराग यथाख्यात संयमी होगए। तब श्राप मोह के विजेता सच्चे जिन कहलाये | धन्य है आपका पुरुषार्थ जिसने प्रनादिकाल के शत्रु
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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