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________________ १५० स्वयंभू स्तोत्र टीका होगए। पापको प्रात्मीक प्रानन्द की विभूति के निरन्तर भोगने में कोई भी विघ्न नहीं बाकी रह गया, बस आप स्वतन्त्रता से प्रात्म रस के पान में नित्य ही मग्न होते भए । आपकी अद्भुत वीतरागता व केवलज्ञान महिमा से मोहित हो इन्द्रादिक देवों ने समवसरण की रचना की, उसमें सिंहासन छत्र चमरादि पाठ प्रांतिहार्य न अनेक शोभा तीर्थंकर पद की द्योतक रची। बारह सभाएं भी बनादी । अपूर्व शोभा से मोहित हो सर्व ही देव-कल्पवासी, भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी तथा अन्य मानवं पशु सब ही बिना किसी भय व संकोच के आते भए और सभाओं में बैठते भए । उन सबके मध्य में आप अहंतपद की लक्ष्मी से विभूषित हो अपूर्व शोभा विस्तारते हुए । वास्तव में अर्हतपद की महिमा वचन अगोचर है । प्राप्तस्वरूप में कहा है शुद्धस्फटिकसंकाश स्फुरन्तं ज्ञानतेजसा । गणैदिशभिर्यक्त ध्यायेदहन्तमक्षयं ॥५६॥ कल्याणातिशयै राढयो नवकेवललब्धिमान् । समस्थितो जिनो देवः प्रातिहार्यपतिः स्मृतः ।।५८॥ भावार्थ-जिसका शरीर शुद्ध स्फटिक के समान प्रकाशमान है, ज्ञान रूपी तेज जिनके भीतर झलक रहा है, जिनका प्रात्मा अविनाशी है, जो बारह सभाओं से युक्त है ऐसे अहंत का ध्यान करो, जो अनेक अतिशयों से विराजित है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग, अनन्त वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व व क्षायिक चारित्र इन नव केवल लब्धियों से विभूषित हैं, जो पूजनीय जिनेन्द्र देव प्रातिहार्य सहित समभाव में स्थित हैं, उनका ध्यान करो। नाराच छन्द । राजसिंह राज्यकीय भोग या स्वतन्त्र हो । शोभते नृपों के मध्य राज्य लक्ष्मि तन्त्र हो ।। पायके अहंत लक्ष्मि आपमें स्वतन्त्र हो । देव नर उदार सभा शोभते स्वतन्त्र हो ।।७।। उत्थानिका--और भी सराग व वीतराग अवस्था में भगवान ने क्या कियायस्भिन्नभूद्राजनि राजचक्र, मुनी दयादीधिति-धर्मचक्रम् । पूज्ये मुहुः प्रांजलि देवचनं, ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्तचक्रम् ॥७६॥ अन्वयार्थ- ( यस्मिन् ) जिस शांतिनाथ भगवान में ( राजनि ) राज्य अवस्था ___ में ( राजचक्र) राजाओं का समूह ( प्रांजलि अभूत ) हाथों को जोड़े हुए सामने खड़ा
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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