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________________ स्वयंभू स्तोत्र टीका भावार्थ - यहां धर्मनाथ भगवान का श्रनपद में तीर्थङ्करपने का महात्म्य प्रगट किया है । जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा मेघ पटलादि से व राहु के विमान आदि से किसी तरह. प्राच्छादित न होता हुआ तथा चारों तरफ अनेक नक्षत्र व तारागणों से वेढ़ा हुप्रा आकाश में अद्भुत रमणीक शोभा को फैलाता है, उसी तरह हे भगवन् ! प्राप इन्द्र द्वारा निर्मित समवसरण के भीतर पूर्ण ज्ञान और शान्ति के समुद्र अद्भुत चन्द्रमा प्रकाशमान होते हुए, श्रापके चारों तरफ बारह सभाएं लगी हैं उनमें देवतागरण व अनेक मानवगण भव्यजीव बैठे हुए व आपकी तरफ ध्यान लगाए हुए वास्तव में नक्षत्र व तारागणों की उपमा विस्तार रहे हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी इन चार प्रकार देवों की बहुत ही सुन्दर देवियां चार सभात्रों में विराजित हैं । अन्य चार सभाओं में ही चार तरह के देव रत्नमई मुकुटों को दैदिप्यमान करते हुए तिष्ठे हैं । एक सभा में साधुगरण अपनी वैराग्यमई मुद्रा से शान्ति का सागर विस्तार रहे हैं । एक सभा में सर्व प्रायिका एवं श्राविकाएँ बड़ी ही भक्ति व विनय से मौन बैठी हुई भगवान की वाणी के सुनने की प्रतीक्षा कर रही हैं। एक सभा में सर्व मनुष्य भव्य जीव अपने जन्म को कृतार्थ मानते व बारबार श्री जिनेन्द्र का शान्त मुख अवलोकन करते हुए विराजित हैं । एकसभा में सिंह, व्याघ्र, हिरण, बैल, गाय, मोर, तोते, काग, हाथी, मुरगे, घोड़े, बकरे, ऊँट, सर्प आदि पन्चेंद्रिय सैनी पशु अपनी प्रशुभ तिर्यच गति से रक्षा पाने के लिये व भगवान का दर्शन करके अपना नीचपना टलता जानते हुए बड़े ही निर्वैर भाव से एकचित्त हो काठ की बनी मूर्तियों के समान निश्चल तिष्ठ रहे हैं । मुख्य साधु श्री गणधर देव तो आपके निकट ही हैं। इस तरह की शोभा श्राप ऐसे तीर्थङ्करों की भक्ति में ही इन्द्र करता है । आपही के द्वारा अद्भुत ऐसी वारणी प्रगट होती है जिसको सर्व पशु पक्षी, मानव, देव अपनी २ भाषा में समझ जाते हैं । ऐसे पूर्ण परमात्मा धर्मरूपी चन्द्रमा का दर्शन हमको सदा लाभ हो । ऐसी भावना स्वामी समन्तभद्रजी ने की है । पात्र केशरी स्तोत्र में कहा है १४० सुरेन्द्रपरिकल्पितं वृहदनयं सिंहासनं । तथाऽऽतपनिवारणत्रयमथोल्सच्चामरम् ॥ वशं च भुवनत्रयं निरुपमा च निःसंगता । न संगतमिदं द्वयं त्वयि तथापि संगच्छते ॥६॥ भावार्थ - इन्द्र ने जो समवसरण की रचना की है उसमें आपके विराजने का महान व अमूल्य सिंहासन अद्भुत शोभा दे रहा है, भवताप निवारण से रक्षा करने के चिह्न रूप तीन छत्र खूब दैदीप्यमान हैं, चौसठ चमर देवों द्वारा ढरते हुए मानो निर्मल
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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