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________________ १३४ स्वयंभू स्तोत्र टीका जव तृष्णा बढ़ती है तो उसकी शान्ति समस्त जगत के पदार्थों से भी नहीं हो सकती । इसलिए साधुपद में परिग्रह का त्याग आवश्यक कहा है । सर्वसङ्गपरित्यागः कीर्त्यते श्रीजिनागमे 1 यस्तमेवान्यथा ब्रूते स होनः स्वान्यधातकः ।। २२ ।। भावार्थ - श्री जिनागम में सर्व परिग्रह का त्याग बताया गया है । जो इससे विरुद्ध कहे कि परिग्रह सहित भी ध्यान की उत्तमता हो सकेगी वह होन भाव वाला अपना व परका घात करने वाला है । इसलिये संयमी ऐसा होता है- विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दुःस्थितेऽपि वा । सर्व त्राप्रतिवद्धः स्यात्सयमी सर्वाजितः ॥ ३५॥ भावार्थ- जो संयमी परिग्रह त्यागी है वह चाहे निर्जन वनमें रहे चाहे जनसमुदाय में आवे व साता में रहे या श्रसाता में रहे वह सर्वत्र मोह से बद्ध नहीं होता है । आपने परिग्रह का त्यागकर दिया इसीलिए आपने तृष्णा का विजय किया, यह अभिप्राय है । पहरी छन्द है खेद अम्बु भयगण तरंग, ऐमी सरिता तृष्णा प्रसंग शोखी अभंग रविकर प्रताप, हो मोक्ष तेज जिनराज बाप ॥ १८ ॥ उत्थानिका - शङ्काकार कहता है कि भगवान की जो स्तुति करते हैं उनको ध लक्ष्मी देते हैं, जो निन्दा करते हैं उनको दरिद्रता देते हैं तब जिनराज में और फलवाता कर्तारूप ईश्वर में क्या अन्तर रहा ? उसका समाधान करते हैं सुहृत्त्वयि श्री सुभगत्वमश्नुते द्विषन् त्वयि प्रत्ययवत्प्रलीयतं । भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थ - ( प्रभो ) हे जिनेन्द्र (स्वयि सुहृत् ) आपमें जो भक्तिवान होता है अर्थात् परम प्रेम से जो आपके गुणों को स्मरण करता है वह (श्रीसुभगत्वम् ) लक्ष्मी के बल्लभपने को अर्थात् अनेक ऐश्वर्य सम्पदा को (ते) प्राप्त करता है ( स्वविहिन ) वी छापने हद करता है, प्रापको निन्दा करता है ऐसा मिथ्यादृष्टी जीव (प्रत्ययवन्) व्याकरण
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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