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________________ १२६ स्वयंभू स्तोत्र टीका भुजगप्रयात छन्द । वचन है विशेषण उमी वाच्य का हो, जिसे वह नियम से कहे अभ्य नाही। विशेषण विशेष्य न हो प्रति प्रसगं, जहां स्यात् पद हो न हो अन्य संगं ॥ उत्थानिका-स्यात् शब्द का फल बताते हैं.-- नयास्तव स्यात्पद-सत्य-लाञ्छिता, रसोपविद्धा इव लोह धातवः । भवन्त्यभिप्रेत-गुरणा यतस्ततो, भवन्तमार्याः परिणता हितैषिणः । अन्वयार्थ-( यतः ) क्योंकि ( तव ) श्रापके द्वारा बताई हुई ( स्यात्पदसत्य. लांछिताः नयाः ) स्यात् पद मई सत्य लक्षण से चिह्नित जो नय हैं ये ( रसोपविद्धाः लोहधातवः इव ) रस से पूर्ण लोह धातु के समान ( अभिप्रेतगुरगाः भवंति ) अभिप्राय को सिद्ध करनेवाली हैं ( ततः ) इसलिये ( हितैपिणः प्रायः ) आत्महितको चाहने वाले गरगघरादि देव (भवन्तं प्रणतः) अापको ही नमस्कार करते हैं । भावार्थ-जैसे लोहा रसादि से मिलने पर या रसादि द्वारा सिद्ध किये जाने पर सुवर्ण रूप हो जाता है वैसे आपके द्वारा हे विमलनाथ ! बताये हुए अनेक नय या भिन्न भिन्न अपेक्षा से हर एक धर्म का कथन मोक्षहितैषी जीव को मोक्ष साधन में पदार्थों का सत्यस्वरूप निर्णय कराने के लिये बड़ा ही उपयोगी पड़ता है। अापका नय द्वारा कयन इसीलिये उपयोगी है कि उसमें स्यात् पद का सत्य चिह्न लगा हुप्रा है। स्यात् पद बताता है कि वस्तु किसी अपेक्षा से इस रूप है, सर्वथा इस रूप नहीं है । यदि स्यात्पर नहीं होवे तो बिना अपेक्षा के यह नय प्राणी को मिथ्या व एकांतमार्ग बतानेवाला होकार उसका अहित ही करे। जैसे विना रसादि के मिले लोहा लोहा ही रहेगा-कभी सोना नहीं बन सकता, वैसे बिना स्यात्पद के नयवाद मान वचन विलास ही रहेगा, पाभी भी सत्य वस्तु के स्वरूप को नहीं बता सकता है। वस्तु का स्वरूप ही अनेकान्त है. उसी को घोतित करनेवाला यह स्यात्पद है। इसको न लगाया जाये तो वस्तु एक धर्म हो ठहरती है, जो वस्तु का स्वरूप नहीं है । जैसे वस्तु स्यात् नित्यं, वस्तु स्यात् नित्यं, इन दो नयरूप वाक्यों ने यह सिद्ध कर दिया कि वस्त द्रव्याथिकनय से नित्य है तब वही बात पर्यायाथिकानय से प्रनित्य है या सामान्य की अपेक्षा नित्य है, विशेष की अपेक्षा प्रनित्य है। यही वस्तु का स्वरूप है ! यदि स्यात को निकाल साले और कहें कि बात नित्य हो ?
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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