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________________ श्री वासुपूज्य जिन स्तुति ११५ विमित्त कारण है । श्री जिनेन्द्र का दर्शन भिन्न २ अपेक्षा से ही कहा गया व समझा गया परम कल्याणकारी होता है । / आत्मानुशासन में श्री गुरणभद्राचार्य कहते हैं परिणाममेव कारणमाहुः खलु पुण्यपापयोः प्राज्ञाः । तस्मात् पापापचयः पुण्योपचयश्च सुविधेयः ॥ २३ ॥ भावार्थ- परिणाम को ही मुख्यता से पुण्य तथा पाप बंध का काररण आचार्यो कहा है इसलिये पाप भाव का नाश व पुण्य भाव का लाभ करना उचित है । ने छन्द । वस्तु बाह्य है निमित्त पुण्य पाप भाव का, है सहाय मूलभूत अन्तरंग भाव का। वर्तता स्वभाव में उसे सहायकार है, मात्र अन्तरंग हेतु कर्म बघकार है ।। ५६ ।। उत्थानिका - यह सब कहते हैं भिन्न २ प्रपेक्षा से कथन जैन मत में ही घटता है ऐसा बाह्यतरोपाधि- समग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्ष - विधिश्च पुंसां, तेनाऽभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ||६| पार्थ - (ते) आपके मत में [ इयं ] यह [ वाह्य तरोपाधिसमग्रता ] बाहरी और अंतरंग कारण की पूर्णता [ कार्येषु ] कार्यों के सम्पादन करने में ( द्रव्यगतः स्वभावः ) द्रव्य में प्राप्त हुआ स्वभाव है [ पुंसां ] संसारी जीवों के लिये [ मोक्षविधिः च ] मोक्ष का उपाय भी [ अन्यथा नैव ] बाहरी और ग्रन्तरंग दोनों साधनों के सिवाय अन्य रूप से नहीं हो सकता । [ तेन ] इसीलिये [ त्वं ] आप [ ऋषिः ] परम ऋद्धि से संम्पन्न परम प्रभु [ प्रधानाम् ] गणधर देव आदि बुद्धिमानों के लिये [ श्रभिवन्द्यः नमस्कार करने के योग्य हैं । } भावार्थ - श्री समन्तभद्राचार्य कहते हैं कि है वासुपूज्य भगवान् ! प्रापने यथार्थ वस्तु का स्वरूप जैसा है वैसा बताया है. इसीलिये गरणधरदेव आदि बड़े २ महान साधु च विद्वान को ही मन, वचन, काय से नमस्कार करते हैं । मापने यह बहुत ही यथार्थ बताया है कि हरएक द्रव्य से कार्य तब ही वन
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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