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________________ श्री वासुपूज्य स्तुति १०६ से बुझ जाती है, वह भी जब सूर्य की भक्ति कर सकती है तब मैं आपकी भक्ति करलू तो कोई प्राश्चर्य की बात नहीं है । वास्तव में श्री तीर्थङ्कर अरहन्तदेव ही पूज्यनीय हैं। जैसा पात्रकेशरी स्तोत्र में कहा है न लुब्ध इति गम्यते सकल संग सन्यासतो । न चापि तव मूढ़ता विगतदोषवाम्यद् भवान् ।। श्रनेकविधरक्षणादसुभृतां न च द्वेषिता । निरायुधतयाऽपि च प्रपगतं तथा ते भयम् ॥ १२ ॥ भावार्थ--हे भगवन् ! आप ही पूज्यनीय हैं क्योंकि श्रापने सर्व परिग्रह का त्याग कर दिया है। इसलिए प्रापको कभी किसी ही परवस्तु में लोभ या राग नहीं हो सकता है। तथा प्रापके वचन पूर्वापर विरोध आदि दोषों से रहित हैं इसलिए प्राप में प्रज्ञानता बिलकुल नहीं है । तथा श्रापने अनेक प्रकार से मन वचन काय से पूर्णपने जगत के प्राणियों की रक्षा की है, आपसे किसी को कष्ट नहीं पहुंचता है इसलिए आपमें द्वेषपना बिलकुल नहीं है । न आपको किसी तरह का भय है, क्योंकि आपके पास कोई शस्त्र नहीं है ! इसलिए आपमें ही सर्वज्ञ वीतराग हितोपदेशोपना के लक्षरण मिलते हैं जो एक देव में होने चाहिए । छन्द तुम्हीं कल्याण पंच में पूज्यनीक देव हो, शक्र राज पूज्यनीक वासुपूज्य देव हो । मैं भी त्पधी मुनीन्द्र पूज ग्रापकी करू भानुके प्रपूज काज दीपकी शिखा घरू ।। . उत्थानिका -- भगवान् की पूजा से उत्तर प्राचार्य देते हैं- भगवान को क्या लाभ होगा ? इस शंका का न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवांतवरे । तथापि ते पुण्यगुरणस्मृतिर्नः, पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ ५७ ॥ श्रन्वयार्थ - - (नाथ) हे प्रभु ( वीतरागे त्वयि ) श्राप वीतराग हैं इसलिए प्रापकी ( पूजया ) पूजा करने से आपको ( अर्थः न ) कोई प्रयोजन नहीं है । ( विवांतवरे ) श्राप वैर रहित हैं इसलिए ( निन्दया न ) आपकी निन्दा करने से भी आपको कोई प्रयोजन नहीं है ( तथापि ) तो भी ( ते पुण्यगुणस्मृतिः ) श्रापके पवित्र गुणों का स्मरण [ नः ]
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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