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________________ श्री श्रेयांशनाथ जिन स्तुति १०७ - यदि वस्तु में पर का अमाव न माना जायगा तो अपना सद्भाव भी नहीं माना जा सकता। कहा है-- . . अस्तित्वं प्रतिषेधेन प्रविनाभाष्येकधर्मणि ।" । अर्थात-एक पदार्थ में अस्तित्व व नास्तित्व दोनों स्वभाव अवश्यमेव वास करते हैं। हरएक वस्तु सर्वथा नित्य मानी जावे या सर्वथा अनित्य मानी जावे तो सिद्ध नहीं ... होती। वस्तु नित्य अनित्य दोनों रूप अपने गुरण पर्यायों की अपेक्षा से है, ऐसा ही सिद्ध होता है। बस, अनेकांल की सिद्धि ने ही एकांतमत का निराकरण कर दिया । हे प्रभु ! प्रापही का ऐसा सच्चा मत है। आपने इसी तरह आत्मा व अनात्मा का सच्चा स्वरूप निर्णय किया और इसी निर्णय रूप प्रमाण ज्ञान से अर्थात् जिन आत्मा का यथार्थ अनुभव करने से जो प्रात्मज्ञान के बाण चलाये उन्हींसे सबसे पहले मोहनीय कर्म का क्षयकर डाला। फिर क्षोण मोह में अंतर्मुहूर्त स्थिति करके शेष तीन घातिया कर्मों का भी क्षय कर डाला और माप केवलज्ञानी अरहन्त परमात्मा होगए। जब तक आत्मा का अनेकांत रूप से यथार्थ ज्ञान नहीं होगा तब तक उसका यथार्थ ध्यान नहीं होगा। और यथार्थ ध्यान हए बिना गुणस्थानों के द्वारा प्रात्मा को उन्नति न होगी। वास्तव में केवलज्ञान के लिये श्रुतज्ञाल ही साधन है । भाव श्रुतज्ञान ही स्वात्मानुभव है । यही बारण मोह का नाश करने वाला है। क्योंकि प्रापने स्वयं सत्य मोक्षमार्ग पाया और उससे अपना उद्धार किया । इसलिये मैं भी आपकी तरह जब अपना उद्धार करना चाहता हूँ तब मुझे आपकी ही शरण ग्रहण कर के प्रापही का गुणानुवाद करना चाहिये । जिससे मैं भी सच्चे प्रात्मध्यानरूपी नारणों से मोह का नाश करके परमात्मा हो सकू। ज्ञानलोचनस्तान में कहते हैं अद्वैतवादीघनिषेधकारी, एकांतविश्वास विलासहारी। मीमांसकस्त्वं सुगतो गुरुश्च, हिरण्यगर्भः कपिलो जिनोऽपि ।। २ ॥ भावार्थ- श्रापही यथार्थ अद्वतवादों के समूह को निषेध करने वाले हैं। एकान्त श्रद्धान के विलास को हरने वाले हैं । इसलिये प्रापही सच्चे मीमांसक हैं, सुगत हैं. गुरु हैं तथा हिरण्यगर्भ हैं. कपिल हैं तथा जिन हैं । अर्थात् पूज्यनीयपनर यापही में सिद्ध होता है; क्योंकि पापही अनेकांतमय पर्याय के प्रकाशक हैं।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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