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________________ श्री शीतलनाथ स्तुति पद्धरी छन्द गुण मुख्य कथक तव वाच्य सार, नहि पंचत उन्हें जो द्वेष घारं । खास तुम्हें इन्द्रादिदेव, पदकमलन में में करहुं सेव ॥ ४३ ॥ ६ १ (१०) श्री शीतलनाथ स्तुतिः । न शीतला चन्दनचन्द्र रश्मयो, न गाङ्गसम्भो न च हारयष्टयः । यथा मुनेस्तेऽनघ वाक्यरश्मयः, शमांबुगर्भाः शिशिरा विपश्चितां । । ४६ ।। अन्वयार्थ - हे भगवन् ! (ते मुनेः ) प्राप प्रत्यक्ष ज्ञानी श्री शीतलनाथ भगवान की ( शमाम्बुगर्भा: ) वीतरागमई जलसे भरी हुई व ( अनघवाक्यरश्मयः ) पाप रहित निर्दोष वचन रूपी किरणें ( विपश्चितां ) भेटज्ञानी जीवों को ( यथा शिशिराः ) जैसी शीतल या सुख शान्ति देने वाली होती हैं वैसी ( चन्दनचन्द्र रश्मयः ) चन्दन तथा चन्द्रमा की किरणें (शीतलाः न ) संसार-ताप हरण करने वाली व सुख शान्ति देनेवाली नहीं हैं ( न गांगम् अस्मः ) न गंगा का पानी शीतलता देता है ( न च हारयष्टयः ) और न मोतियों की मालाएं ही शीतलता दे सकती हैं । भावार्थ-यहां भी कवि ने यही बताया है कि हे श्री शीतलनाथ भगवान् ! प्रापका नाम भी यथार्थ अर्थ को झलकाने वाला है । प्राप यथार्थ में स्वयं शीतल हो और दूसरों को भी शीतल करने वाले हो । आपने प्रनादिकाल से होते हुए मोह व अज्ञान के ताप को जड़मूल से दूर करके परम वीतरागता प्राप्त कर ली हैं । आपका आत्मा परम शीतल हो गया है । साथ में अनन्त सुख की प्रगटता होगई है जिससे कभी श्रापके पास दुःख, शोक, खेद, भय, चिन्ता, क्रोधादि विभाव भाव या कोई प्रकार की इच्छा आदि विकार कभी फटकते ही नहीं हैं । आपके मीतर जैसी शीतलता भरी हुई है उसको स्पर्श करके जो आपके सम्यग्ज्ञानमई निर्दोष व प्रखण्डित व प्रमाणीक तथा मोक्ष मार्ग प्रदर्शक वचन निकलते है उनमें भी ऐसी शीतलता होती है कि जो सुनने वाले भव्य जीव विवेकी हैं व विचारवान हैं व तत्व के समझने की शक्ति रखते हैं, उनको ऐसा विदित होता है कि मानो परम प्रमृत फरे वर्षा से वे सिंचित हो रहे हैं। वाणी के सुनते २ उनके हृदय का संसार ताप तृष्णा का
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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