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________________ श्री पुष्पदंत जिन स्तुति . से नहीं है, और जब कहा जाता है कि जीव क्षणभंगुर है तब भी विवेकी यही समझते हैं कि पर्याय की अपेक्षा जीवन क्षरणभंगुर है, द्रव्य की अपेक्षा से नहीं। ऐसा ही स्वामी ने प्राप्तमीमांसा में कहा है.. नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिन। वारणेन वा । तथाऽन्यथा च सोऽवश्यमविशेष्यत्वमन्यया ॥१०॥ ..भावार्थ-विधि या निषेध वाक्य कहने से प्रर्थ विशेष का नियम किया जाता है। जैसे 'स्यात् अस्ति घटः' यह वाक्य बताता है कि किसी अपेक्षा से घट में घट का अस्तित्व है। यह स्यात् गौरगता से घट में पर की अपेक्षा नास्तित्व का बोध कराता है। इसी तरह "स्यात् नास्ति घटः" मुख्यता से घट में नास्तित्व का बोध व गौणता से अस्तित्व का बोध कराता है। वस्तु सामान्य विशेष रूप है वा अस्ति नास्तिरूप है । इसके विरुद्ध यदि सर्वथा वस्तु को एक रूप या अनेक रूप कहें तो वस्तु का वस्तुपना ठीक न प्रगट हो। इसलिये हे प्रभु ! आपका प्रनेकान्त स्वरूप आगम द्वारा भी सुगमता से प्रतिपादित होता है। पद्धरी छन्द पद एकानेक स्ववाच्य तास, जिम वृक्ष स्वतः करते विकास । यह शब्द स्यात् गुण मुख्यकार, नियमित नहिं होवे बाध्यकार ।।४।। ... उत्थानिका-इस तरह पद का अर्थ कहकर अब वाक्य का अर्थ कैसा करना चाहिए सो कहते हैं गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं, जिनस्य ते तद् द्विषतामपथ्यम् । ततोऽभिवन्य जगदीश्वराणां, समापि साधोस्तव पादपद्मम् ॥४॥ - अन्वयार्थ-( इदं हि वाक्यं ) जैसे शब्द से प्रतीति होती है वैसे ही वाक्य भी ( गुणप्रधानार्थ ) गौरण व मुख्य के प्रयोजन को बताता है । स्यात् शब्द से अलंकृत वाक्य होता है इसलिये वह जिस बात को स्पष्ट कहता है उसे मुख्य करता है जिसे उस समय वक्ता नहीं कहता है उसका गौरणपने ज्ञान श्रोता को हो जाता है । ( ते जिनस्य ) आप जिनेन्द्र से (द्विषताम) जो विरोध रखने वाले दर्शन हैं उनको (तत् अपथ्यम्) यह आपका - एकान्त खण्डन व अनेकान्त मण्डन रूप वाक्य इष्ट नहीं है अर्थात् वे न समझकर उल्टा विरोध करते हैं (ततः) इसी कारण से आपका वाक्य यथार्थ वस्तु स्वभाव को कलकाने वाला है ( तव साधोः पादपद्मम् ) श्राप मोक्ष के साधक श्री पुष्पदन्त भगवान के चरण
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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