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________________ ७३ श्री चन्द्रप्रभ जिम स्तुति भीतर झलकनेवाले व (चंद्रप्रभं) चंद्रमाके समान प्रभाधारी ऐसे आठवें श्री चंद्रप्रभ भगवान तीर्थंकर को (वन्दे) मैं समन्तभद्र नमस्कार करता हूँ। भावार्थ-यहां भी श्री चंद्रप्रभ नामकी सार्थकता बताई है। यद्यपि भगवानकी उपमा चंद्रमासे दी है कि उनकी प्रभा या चमक चंद्रमा तुल्य थी तथापि चंद्रमा उनके समान कोई वस्तु न था। चंद्रमा के रंगमें कुछ दोष झलकता है, पर चंद्रप्रभ भगवानमें बिलकुल साफ शुक्लपना था । शरीर भी शुक्ल था व अंतरंग भाव लेश्या भी वीतरागता रूप व कषायकी कालिमा रहित परम शुक्ल थी। चंद्रमा तो कमती बढ़ती उद्योत करता व उदय व अस्त होता है परन्तु यह सदा ही केवलज्ञानके प्रकाशसे प्रकाशित थे। चंद्रमा __ को मेघाच्छादित कर लेते हैं परन्तु इस अद्भुत दूसरे चंद्रमाको कर्मोंका आवरण नहीं रहा है न कर्म अब आत्माका आवरण कर सकते हैं-ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोका सर्वथा नाश हो गया है । चन्द्रमा तो राह के द्वारा ग्रसित होता है परन्तु इस अनुपम चन्द्रमा ने उस भाव कर्म रूप कषाय भाव के बन्ध को बिलकुल मिटा दिया है जो वीतरागमय आत्मस्वभाव को मलीन दिखला दिया करता था। उस चन्द्रमा को तो मर्ख अज्ञानी ही नमस्कार करते हैं परन्तु इस अपूर्व चन्द्रमा को तो बड़े २ इन्द्रादि देव भी नमन करते हैं। वह चन्द्रमा तो मात्र ज्योतिषी देवों का ही इन्द्र है । यह परमात्मामई चन्द्रमा बड़े २ .. गणधरादि मुनियों का स्वामी है । सदा ही विकासरूप ऐसे अरहन्त पद में सुशोभित श्री चन्द्रप्रभ भगवान पाठवें वर्तमान तीर्थंकर को मैं मन वचन काय से नमस्कार करता है। में जानता हूँ कि श्री चन्द्रप्रभ भगवान के समान हो मेरा आत्मा भी है परन्तु जहां तक मैं — कर्मों के जाल में फंसा हैं व कषाय भाव से ग्रसित हूं तब तक मैं परम आदर्श रूप श्री चन्द्रप्रभ भगवाल को अपने हृदय मन्दिर में धारण कर उनकी भक्ति करता रहता हैं व उनका अनुकरण करता रहता हूँ कि जिससे मैं भी कर्मों को और कषायों को जीतकर उनही के समान जिन, महान, पूजनीय व वंदनीय व परम ज्ञान में नित्य प्रकाशमान व परम निराकुल हो जाऊ ।। ...... पात्रकेशरी स्तोत्र में अरहन्त की महिमा बताई है परिक्षपितकर्मणस्तव न जातु रागादयो । न चेन्द्रियविवृत्तयो न च मनस्कृता व्यावृतिः ।। तथापि सकलं जगा गपदजसा वेत्सि च । प्रपश्यसि च केवलाभ्यदित दिव्यसच्चक्षुषा ६. .. . भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! क्योंकि आपने मोहनीयादि कर्मों का नाश कर दिया है
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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