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________________ ६५ · स्वयंभू स्तोत्र टीका ... अन्वयार्थ-( मृत्योः ) मृत्यु से ( बिभेति ) यह प्राणी डरता रहता है ( ततः मोक्षः न अस्ति ) परन्तु उस मरण से छुटकारा नहीं होता है । यह कर्मोदय का ही तीव्र प्रताप है (नित्यं) सर्वदा (शिव) कल्याण को या मुक्ति को (वांछति) चाहता रहता है (अस्य लाभः न) परन्तु कर्मों के उदय के ही कारण से उस कल्याण का या मोक्ष का लाभ नहीं होता है । ( तथापि ) तो भी ( बालः ) अज्ञानी प्रारणी ( भयकामवश्यः ) मरणादि से भय व सुखादि की अभिलाषा के आधीन हया ( स्वयं ) अपने आप (मुधा) वृथा ही ( तप्यते ) दुःखी हुआ करता है ( इति अवादीः ) ऐसा आपने उपदेश दिया है । जो बुद्धिमान दीर्घदर्शी है वह यह समझकर कि देव की प्रतिकूलता से हो इष्ट कार्य नहीं सिद्ध होता है, उस देव या कर्मों को क्षय करने के लिए निरन्तर धर्म का यत्न करता रहता है । धर्म की वृद्धि से हो सर्व इष्ट कार्य की सिद्धि होती है। भावार्थ-हे सुपार्श्वनाथ भगवान् !. आपने वस्तु स्वरूप ठोक २ बताया है। कर्मोदय की तीव्रता या देव या भवितव्यता का प्रमारण आपने प्रगट रूप से यह बता दिया है कि सर्व ही प्राणी साधारणता से यही चाहते हैं कि हम सदा जीवित रहें । हमारा कभी मरण न हों। परन्तु वे ऐसा कोई अलौकिक पुरुषार्थ नहीं कर सकते जिससे वे मरणको टाल सके, करते तो बहुत प्रयत्न हैं; औषधि, मंत्र, तंत्र आदि बहुत कुछ करते हैं; परन्तु मरगकी होनहार को बिलकुल ही नहीं टाल सकते । यह शक्ति तो किसी में नहीं है । इन्द्र जो महा बलवान है वह भी प्रायुकर्म के क्षयसे समयको टाल नहीं सकता। चक्रवर्ती जो महान् निधियों के स्वामी हैं उनको भी समय पर मरना ही पड़ता है । यह अमिट भवितव्यता का प्रगट हष्टांत है। दूसरा यह है कि बहुधा जन यह चाहते हैं कि हम संसार से एकदम छुट जावें, हमारी मुक्ति होजावे तो हम जन्म-मरग-रोग-शोक वियोग के दुःखों से रहित होजावें, परन्तु चाहने पर भी अपना छुटकारा नहीं कर सकते, मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते, क्योंकि लौकिक पुरुषार्थ से कोई संसार से छुटकर मुक्त नहीं होसकता । कर्मों का उदय या देव उसको नवीन नवीन गतियों में फंसा देता है । यह भी देव को शक्ति का प्रगट दृष्टांत है । अथवा हरएक प्राणी सुख चाहता है, भला चाहता है कि न मैं रोगी हूं, न दलिद्री हूं, न बूढ़ा हूं,न असमर्थ हूं, किन्तु सदा ही इच्छित भोगों को भोगता रहूं। मेरे सुख में कभी भी विघ्न न पावें परन्तु फर्मोदय की तीव्रता के होने से ऐसा अपना हित कर नहीं सकता। रात दिन ही सुख में विन्न पाता है व इच्छित हित हाथ नहीं आता है। यह क्या कर्म की तीव्रता का प्रगट उदाहरण नही है ? ऐसा जानते हुए भी जो अज्ञानी हैं, वस्तु के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, वे निरंतर मरण
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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