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________________ स्वयंभू स्तोत्र टीका मिलते व होते हुए भोग नष्ट हो जाते हैं। तथा शरीर की नाना प्रकार रचना भी कर्म के उदय से होती है व शरीर का त्याग होना भी आयु कर्म के क्षय के आधीन है। यह तीव्र कर्म का उदय है, तीव्र मिथ्यात्व का उदय है, जिससे यह अज्ञानी प्रारणो समझाए जाने पर भी प्रतीति में नहीं लाता है । जिस किसी को इतना अहङ्कार हो कि मैं अवश्य कार्य कर ले जाऊंगा, दैव व पुण्य पाप कोई चीज नहीं है उसी के बहुत से कार्य कारण कलाप मिलाने पर भी सफल नहीं होते हैं। तब वह बिलकुल असमर्थ हो जाता है। उस समय अवश्य देव का स्मरण होता है। जगत में ऐसे बहुत से कार्य हैं जिनमें विघ्न प्रा जाता है। एक सेठ ने यह विचार किया कि मैं अपने पुत्र को चतुर बनाकर व उसको गृही धर्म में लगाकर फिर मैं घर को छोड़ दूंगा । उसने अपने पुत्र को सब तरह ठीक बनाया। जब वह युवान होगया यकायक पुत्र रोगाकान्त हो मर गया। सेठ इस भावी कर्म के उदय को रोक न सका। एक आदमी अपने पास धन को बहत सम्हाल से रक्खे हए यात्रा कर रहा है। यकायक कभी गाफिल हो जाता है, चोर उसका धन निकालकर ले जाते हैं। क्या यह हानि पाप कर्म के उदय से नहीं हई ? अवश्य हई। एक ही भूमि में आसपास खेती होती है किसी की फलती है, किसी की नहीं फलती है । एक ही बाजार में एक ही तरह की दूकानें हैं, कहीं अधिक विककर अधिक लाभ होता है, कहीं कम बिककर कम लाभ होता है । शरीर की भोजनपानादि से भले प्रकार सम्हाल करते हुए भी यकायक कोई शरदी गरमी हवा का कारण बन जाता है कि जिससे शरीर रोगाकान्त हो जाता है । और देखते २ शरीर छुट जाता है। अपने सम्बन्धियों का वियोग व अपनी सम्पदा का वियोग कोई नहीं चाहता है परन्तु जगत में वियोग हो जाता है । श्रागे के श्लोक में स्वयं प्राचार्य इसी बात को बतायेंगे। वास्तव में कर्म अवश्य है। यदि कर्म न हों तो अात्मा अशुद्ध ही न पाया जावे,न इसके क्रोधादि विकार हों न इसके अज्ञान हों। तथा सबके काम सिद्ध ही हो जाने चाहिये। क्योंकि ऐसा नहीं होता है इससे यह गिद्ध है कि अहष्ट या देव या पुण्य पाप अवश्य है। हरएक कार्य के लिये बाहरी व अन्तरग कारण की जरूरत पड़ती है । बाहरी कारण के मिलाने के लिये पुरुषार्थ किया जाता है, तब अन्तरंग कारण यदि अनुकूल होगा तो कार्य की सफलता होगी, प्रतिकल होगा तो कार्य असफल हो जायगा। जगत में जितना कर्मों के क्षयोपशम से ज्ञान व प्रात्मवल प्रगट होता है उसको पुरुपार्थ कहते है । __यह कर्मों के हटने से है, उदय से नहीं है। इस ज्ञान और प्रात्मनल से हरएक कार्य को
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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