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________________ ૬૪ स्वयंभू स्तोत्र टीका । समान अचेतन ही रह जाता है । फिर यह शरीर अत्यन्त कुरूप है, घिनावना है, ऊपर से यदि एक चमड़ा उठा दिया जावे तो कोई अपने शरीर को भी स्वयं नहीं देख सकेगा, हाड़ का पिंजरा महा भयानक सा दीख पड़ेगा । यदि न भी उठावें तो भी यह प्रति सुन्दर रूपवान शरीर भी बहुत शीघ्र कुरूप हो जाता है । यदि इसे रोग आजावे, वृद्धावस्था जावे व भूख प्यास से सताया हुआ हो व क्रोधादि से व्यथित हो तो यह देखने योग्य नहीं रहता । यह दुर्गन्ध से भरा है नाक, कान, आंख, सुख, नीचे के द्वार व रोमों से सर्व तरफ दुर्गन्धमय मैल ही को बाहर निकालता है । जल पुष्पमाल चन्दन वस्त्र आदि भी स्पर्श पाकर अपवित्र हो जाते है । यह स्वयं अपवित्र है व जिसे २ वह अपने शरीर पर धारण करता है उसे २ वह अपवित्र बना देता है । फिर यह आयु कर्म के प्राधीन है व हम कर्म भूमि के पामर मानवों का देह तो अकाल मरण के आधीन है। विदित नहीं कि किस समय नाश हो जावे अर्थात् प्रारण रहित हो जावे । ऐसा होने पर भी जब तक इसका सम्बन्ध है तब तक यह ताप को करने वाला है। इसी के ही निमित्त से भूख, प्यास, गर्मी, शरदी आदि की बाधायें सताती हैं जिनसे प्राकुलित हो बहुत यत्न करना पड़ता है । यह जब कुछ भी बिगड़ जाता है जीव को बेचैनी हो जाती है । जितना संसार में कष्ट है वह सब शरीर के निमित्त से है । शरीर के उपकारी के वियोग पर शोक होता है । शरीर को हानि पहुंचाने वाले पर द्वेष होता है । यह शरीर ही रागद्वेष का मूल कारण है और रागद्वेष ही कर्म बन्ध के कारण हैं और कर्म बन्ध संसार में भ्रमण के कारण हैं । ऐसा यह शरीर किसी भी तरह स्नेह करने योग्य नहीं है । इससे भीतरी प्रेम करना वृथा है, क्योंकि यह टिकने वाला नहीं है । प्रेम तो उससे करना चाहिये जो थिर हो व सुखदाई हो । दुःखदायक अथिर व पवित्र वस्तु से राग करना मूर्खता है। बुद्धिवान को चाहिये कि जब तक शरीर है तब तक इसमें राग न करके मात्र इसको स्वास्थ्ययुक्त रखके इससे जो कुछ आत्महित है सो कर लेना योग्य है-उसमें श्राज कल न करना चाहिये । क्योंकि इसके छूटने का कुछ भी भरोसा नहीं है । ज्ञानाव में श्री शुभचन्द्र प्राचार्य कहते हैं प्रजिनपटलगूढ़ पंजरं कीकसानाम् । कुथितकुरणपगन्धेः पूरितं मूढ़ गाढम् ॥ यमवदननिषण्णं रोगभोगीद्रगेहं । कथमिह मनुजानां प्रीतये स्याच्छरीरम् ||१३|| भावार्थ - यह शरीर चमड़े के परदे से ढका है भीतर यह हाड़ों का पिंजरा है,
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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