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________________ स्वयंभू स्तोत्र टीका सताया हुआ हूँ। आप भवातापको शमन करके परम शांत होगए हैं। मुझे भी प्रात्म शांतिकी चाह है इसलिये आपकी शरण में आया हूँ। आपसे लव लगाई है जो चाहे सो बकता हूं। मेरा प्रयोजन यही है कि मैं परम शांतिको पाकर सुखी होजाऊं । वास्तवमें ज्ञानीजन निरन्तर वीतराग भावकी ही भावना करते हैं। श्री पद्मनन्दि मुनि सिद्धस्तुतिमें कहते हैंसैका सुगतिस्तदेव च सुखं ते एव दग्बोधने । सिद्धानामपरं यदस्ति सकलं तन्मे प्रियं नेतरत् ।। इत्यालोच्य दृढ त एव च मया चित्त धृताः सर्वदा । तद्रूपं परम प्रयातु मनसा हित्वा भवं भीपणम् ।२८। भावार्थ-सिद्ध स्वरूप ही एक सुगति है वही सुख है वे ही दर्शन ज्ञान हैं । सिद्धों के सिवाय और कोई भी मुझे प्रिय नहीं है। ऐसा विचार कर मैंने उनको ही दृढ़ता से अपने मनमें सदा धारण किया है, जिससे मैं इस भयानक संसार को मनसे त्यागकर उसी परम सिद्ध स्वरूपको प्राप्त होजाऊं। मुक्तादाम छन्द । तुम ऋषि गुणसागर गुणलव भी, कथन न समरथ इन्द्र की भी। हूं बालक कैसे गुण गाऊँ, गाढ भक्ति से कुछ कह जाऊ ।। ३० ।। (७) श्री सुपार्श्व जिन स्तुति स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां, स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा । तृषोऽनुषंगान च तापशांतिरितीदमाख्यद् भगवान् सुपार्श्वः ।।३१॥ . अन्वयार्थ--( यतु आत्यंतिकं स्वास्थ्यं ) जो अत्यन्त अविनाशी अपने प्रात्मस्वरूप रूप हो जाता है। अर्थात् कर्मादिमल से छूट कर अनन्त ज्ञानादि गुणों का स्वामी होकर आत्मानन्द में नित्य मग्न रहता है ( एषः पुसा स्वार्थः ) यही सच्चा जीवों का प्रयोजन है, यही उद्देश्य है व होना चाहिये ( परिभंगुरात्मा भोगः न ) क्षणभंगुर इन्द्रिय सुखों का भोग उद्देश्य नहीं होना चाहिये ( तृपोऽनुसङ्गात् ) क्योंकि भोगों के भोगने से तृष्णा की वृद्धि होती जाती है। ( च तापशांतिः न ) तथा जो चाह की दाह है वह शान्त नही होती है । ( इति इदम् ) ऐसा वस्तु का स्वरूप ( भगवान् ) परम ज्ञानी व परम पूज्य
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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