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________________ ४८ स्वयंभू स्तोत्र टीका एक.रूप ही माननेसे कोई ऐसा माननेवाला अपने कथनको सिद्ध नहीं कर सकेगा । सर्वथा अढत या एकरूप माननेसे सिद्ध करनेके लिये साधक व साध्य दो कहने पड़ेंगे सो नहीं बनेगा। सर्वथा शून्य माननेसे तत्त्व ही न रहेगा । इसलिये यह मानना उचित है कि तत्त्व भाव प्रभावरूप है या अस्तिनास्तिरूप है। प्रात्ममीमांसामें स्वामीने इस बातको स्पष्ट कर दिया है भावकान्ते पदार्थानामभावानामपह्नवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥१॥ प्रभावकान्तपक्षेऽपि, भावापह्नववादिनाम् । बोधवाक्य प्रमाणं न, केन साधनदूषणम् ॥१२॥ अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्ये कर्मिणि विशेषणत्वात् साधयं, यथामेदविवक्षया ॥१७॥ भावार्थ-यदि पदार्थको एकांतसे भावरूप ही माना जावे और प्रभावपना न माना जावे तो यह दोष होगा-पदार्थ सर्वरूप या विश्वरूप होजायगा। यदि दो रूप होगा तो एकका दूसरेमें प्रभाव पाजायगा तथा वह पदार्थ अनादि अनंत होजायगा, क्योंकि पहले व पीछे कभी किसी तरह उसका प्रभाव नहीं होसकेगा । फिर तो जगतमें न कोई नया काम बनेगा न पुराना काम बिगड़ेगा । सो ऐसा वस्तुका स्वरूप नहीं है। प्रत्यक्ष देखनेमें आता है कि मिट्टीसे घड़ेकी पर्याय बनी व घड़ेका अभाव होकर ठीकरे बने । जो गेहूं पहले न थे वे उत्पन्न होगए, गेहूंका अभाव होकर चून होगया। इस तरह पर्यायका प्रभाव बरावर होता है। तथा जब जीव व जड़ दो द्रव्य हैं बिलकुल पृथक हैं, तब एक दूसरेमें प्रभाव मानना ही पड़ेगा । एक द्रव्यको को पर्यायें घट व लोटा एक ही काल में है इसमें भी घटका अभाव लोटामें व लोटाका अभाव घटमें है। ऐसा आपका मत नहीं है । यदि पदार्थको अभावरूप ही माना जावे, भावपना होय ही नहीं तो फिर इसके समझानेके लिये ज्ञान व वचन कुछ न रहेगा, न कोई प्रमाण रहेगा जिससे अपने पक्षका साधन हो । पर-पक्षको दूषण दिया जावे। .इसलिये वस्तु स्वरूप ऐसा मानना उचित है कि जहाँ व जिस धर्मी पदार्थम अपने स्वरूपले अस्तिपना है या भावपना है वहां परकी अपेक्षा नास्तिपना व प्रभावपना अवश्य है । जहां हमने एक वस्तुको कहा कि यह सुवर्ण है तब सुवर्णका भावपना तब ही होगा जब उसमें सुवर्ण सिवाय चांदी लोहा पीतल आदिका अभावपना है। जस जिस पदार्थमें जो जो विशेषण होता है वह अपना विरोधी भी रखता है। जैसे जलम शीतपना है परन्तु उष्णपना नहीं है । शीतपनेका भाव व उष्णपनेका प्रभाव है । इसलिए
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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