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________________ ४२ स्वयंभू स्तोत्र टीका श्रग्विनी छन्द । है विषयलीनता, प्राणिको तापकार । है तृषा वृद्धिकर, हो न सुखसे बसर || हे प्रभो ! लोकहित, आप मत मानके । साधुजन शर्ण लें, आप गुरु मानके || २०|| (५) श्री सुमति तीर्थंकर स्तुतिः । 1 अन्वर्थसंज्ञः सुमतिर्मुनिस्त्वं, स्वयं मतं येन सुयुक्तिनीतम् यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति, सर्वक्रियाकारकतत्त्व-सिद्धिः ॥ २१ ॥ श्रन्वयार्थ - ( त्वं ) श्राप सुमतिनाथ ( ग्रन्वर्थसंज्ञः ) अपने नामके समान यथार्थ अर्थ को रखनेवाले हो । प्राप ( मुनिः) प्रत्यक्ष ज्ञानी हो ( सुमतिः) शोभनीक ज्ञानके स्वामी हो ( येन ) जिसने (स्वयं) अपने से ही ( सुयुक्तिनीतं ) सुन्दर गाढ़ युक्तियों से सिद्ध किया गया जीवादि तत्त्वका स्वरूप ( मतं ) अंगीकार किया है । अर्थात् प्रमारण व नयसे सिद्ध होनेवाला तत्त्व बताया है ( यतश्च ) इसी से ही ( शेषेषु मतेषु ) प्रापके अनेकांत मतके सिवाय दूसरे एकांत मतों में (सर्वक्रियाकारकतत्त्वसिद्धिः नास्ति ) सर्व प्रकार की क्रिया तथा सर्व कर्ता प्रादि कारकों के स्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि क्षणिक एकांत पक्षको लें जो यह कहता है कि वस्तु सर्वथा क्षरण मात्र में नाश होजाती है तो फिर कार्य होने के क्षण में सर्वथा वस्तु नहीं रह सकती । तब जगत में कोई कार्य नहीं बन सकेंगा। हर एक कार्य गधे के सींग के समान होजायगा । यदि नित्य एकांत पक्षको लें, जो जिसमें परिणाम पा विकार या बदलना नहीं हो सकेगा । उसमें भी आकाश के फूल के समान कार्य व कारण भाव रहेगा । V भावार्थ - यहां यह बताया है कि - हे सुमतिनाथ ! आपका जो सिद्धांत है वह प्रथार्थ है । क्योंकि न्याय की युक्तियों से वही बांध सिद्ध होता है | श्राप तो वस्तु को जैसी है वैसी बताते हैं । वस्तु प्रनेक स्वभावों को एक काल रखने वाली है इसलिये वह प्रनेकान्त है । वस्तु किसी अपेक्षा से प्रस्तिस्वभाव है, किसी अपेक्षा नास्ति स्वभाव है, किसी अपेक्षा एक स्वभाव है किसी अपेक्षा अनेक स्वभाव है । किसी अपेक्षा नित्य स्वभाव से है किसी अपेक्षा नित्य स्वभाव है । ऐसा हो आपने बताया है तब ही पके ग्रनुसार जगत में कारण कार्य सब बन जाते हैं व कर्ता कर्म कररण आदि कारक भी सिद्ध हो जाते हैं । परन्तु आपके विरुद्ध जो सत हैं जो एक ही स्वभाव या अन्त को सर्वथा
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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