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________________ श्री श्रभिनन्दन जिन स्तुति ३६ भावार्थ - इस श्लोक में कैसा सुन्दर वैराग्य का उपदेश है। स्वामी समन्तभद्रजी कहते हैं कि जब यह जगत् में देखने में प्राता है कि एक साधारण मानव भो, जिसके भीतर विषय भोगों की बड़ी ही लोलुपता है ऐसा जानकर कि जो स्वच्छन्द विषयों में प्रवृत्ति करूंगा तो अत्यन्त कष्ट उठाऊंगा, शरीर बिगड़ जायगा, रोग पैदा हो जायगा, पैसे की अधिक चिन्ता होगी, बहुत आकुलता होगी, निन्दा प्राप्त होगी व परलोक में भी पाप का फल भोगूंगा ऐसा समझकर तथा इस भय से कि यदि मैं चोरी, परस्त्री गमन, न्याय श्रादि करूंगा तो राजा से दण्ड पाऊंगा व नरकादि में कष्ट भोगूंगा, जो न करने योग्य काम हैं अर्थात् जिनसे लौकिक में निन्दा हो व राज्य से दण्ड मिले व ग्रपना यहां भी बुरा हो व परलोक में भी बुरा हो उनको कभी नहीं करता है । जब एक सामान्य मानव प्रयोग्य कामों से बच सकता है तब जो ज्ञानी है और जानता है कि विषय सुख में कांक्षा रखने से न तृप्ति होती है न इस शरीर व श्रात्मा का भला होता है किस तरह वैषयिक सुख में लिप्त होगा ? अर्थात् ज्ञानी सदा ही विषय भोगों को विष के समान जान कर उनसे उदास रहेगा । वह तो तत्त्वज्ञान से यह जान गया है कि ग्रात्मिक सुख ही सच्चा सुख है वही यहां भी इस शरीर व श्रात्मा दोनों को हितकारी है व वही मरण के पीछे भी श्रात्मा का उपकारी है तव उसे उसी सच्चे प्रानन्द में प्रोति रहेगी । अमृत को अमृत समझ लेने पर व उसका स्वाद पा लेने पर कौन ऐसा मूर्ख है जो विषवत् विषयसुख में फंसकर अपना उभयलोक का प्रकल्याण करेगा ? ऐसा वस्तु स्वरूप हे भगवान् ! आपने बताया है । सुभाषित रत्नसंदोह में कहा है "भोगा नश्यन्ति कालात् स्वयमपि न गुणो जायते तत्र कोऽपि । तज्जीवैतान विमुच्य व्यसनभयकरानात्मना धर्मबुद्धयां । स्वातत्र्याद्य ेन याता विदधति मनसस्तापमत्यन्तमुन । तन्वन्त्येते नु मुक्ताः स्वयमसमसुख स्वात्मन नित्यमन्यम् ॥४२३॥ भावार्थ -- ये भोग समय पाकर नाश हो जाते हैं उनसे कोई भी उपकार स्वयं नहीं किया जाता है, इसलिये हे जीव ! तू वर्मबुद्धि फरके पाप हो इस विपत्ति व भय के करने वाले भोगों को छोड़ दे। क्योंकि यदि ये स्वतन्त्रता से जायेंगे तो ये मन को प्रयत् भयानक ताप पैदा करेंगे और यदि छोड़ दिये जायेंगे तो इनके त्याग से अविनाशी पूजनीय अनुपम प्रात्मीक सुख प्राप्त हो जायगा ।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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