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________________ ३६ स्वयंभू स्तोत्र टीका सम्बन्ध कर्मों के उदय से हुआ है उनमें अपनेपने का अभिप्राय सो ममकार है । जैसे यह देह मेरी है । तथा जो कर्मों के उदय से होने वाले भाव हैं व जो निश्चय से आत्मा से भिन्न हैं उनमें अपनेपने का मिथ्या अभिप्राय सो श्रहङ्कार है जैसे मैं राजा हूं इत्यादि । ऐसे दुःखित जीवों का कल्याण हे अभिनन्दननाथ ! आपकी दिव्य ध्वनि द्वारा प्रगट सम्यक् उपदेश से हुआ । श्रापने समझाया कि यह आत्मा बिलकुल भिन्न है, यह तो प्रविनाशी शुद्ध राग-द्वेष-मोह-रहित, परम शान्त ज्ञाता दृष्टा श्रानन्दमई स्वयं परमात्मा देव है, यह कर्मों के द्वारा होने वाले ठाठों से सर्वथा भिन्न है । तथा सच्चा सुख श्रात्मा में ही भरा है । इसी को श्रद्धान करके सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर व इसी आत्मा का ध्यान करके सम्यक् चारित्र का आराधन कर, तो तू यहां भी सुख शान्ति पावेगा व भविष्य में भी उन्नति करते २ परमात्मा हो जावेगा, संसार के भयानक कष्टों से छूट जावेगा । ग्रापने बताया जैसा सारसमुच्चय में कहा है सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य ध्रुवं निर्वाण संगमः । मिथ्यादृगोऽस्य जीवस्य संसारे भ्रमणं सदा ।। ४१ । भावार्थ- सम्यक्त्व सहित जीव को निश्चय से निर्धारण का लाभ है परन्तु जो मिथ्यात्वी है उस जीव का सदा ही संसार में भ्रमरण रहा करेगा । इन्द्रियप्रभवं सौख्यं सुखाभासं न तत्सुखम् । तच्च कर्म विवन्धाय दुःखदाने कपंडितम् ॥७७॥ रोषे रोषं परं कृत्वा माने मानं विधाय च । संगे संगं परित्यज्य स्वात्माधीन सुखं कुरु ॥१९१॥ भावार्थ- इन्द्रियों से होने वाला सुख सुखसा दिखता है परन्तु सच्चा सुख नहीं है, क्योंकि उससे अनेक दुःख देने में चतुर ऐसे कर्मों का बंध होता है । इसलिए क्रोध को कोध में व मान को मान में भिन्न जानकर रखदे व परिग्रह में परिग्रह को छोड़ दे और अपने आत्मा के आधीन प्रात्मा ही के पास जो सच्चा सुख है उसी का भोग कर । इस तरह का अपूर्व तत्त्व हे प्रभु ! प्रापने बताया है. इसलिये आपको बार-बार नमस्कार हो । छन्द श्रग्विनी तन ग्रचेतन यही, और तिस योगते । प्राप्त सम्बन्ध में, प्रापपन मानते । जो क्षणिक वस्तु हैं, थिरपना देखते । नाग जग देव प्रभु, तत्त्व उपदेशते || १७|| उत्थानिका -- श्री अभिनन्दननाथ ने किस तरह तत्त्व का स्वरूप बताया सो कहते हैं
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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