SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वयंभू स्तोत्र टीका त्याग बताया गया है। जिससे साधक को शनैः २ शरदी आदि सहने का अभ्यास हो जाता है। मुख को किसी ऋतु में ढका नहीं जाता है । जैसे एक मुख को आदत पड़ जाती है वैसे सब शरीर को पड़ जाती है। पात्रकेशरी स्तोत्र में मुनिचर्या को बताया हैजिनेश्वर ! न ते मतं पटकवस्त्रपात्रग्रहो। विमश्य सुखकारणं स्वयमशक्तकैः कल्पितः। प्रथायमयि सत्पथस्तव भवेद् वृथा नग्नता । न हस्तसुलभे फले सति तरुः समारुह्यते ॥४१॥ भावार्थ-हे जिनेन्द्र ! आपके प्रत में ऊन का व रुई का वस्त्र व भिक्षा का पात्र रखना साधु के लिये हिंसा के कारण से मना है। जो स्वयं असमर्थ हैं उन्होंने शरीर सुख का कारण समझकर साधु के रखने की कल्पना की है। यदि वस्त्र रखना भी साधु का मोक्ष मार्ग हो जाय तो फिर नग्न होना वृथा ही है, क्योंकि यदि हाथ में वैसे ही फल प्रा जावे तो वृक्ष पर चढ़ना वृथा ही हो जावे । जो अन्तरंग निर्मोही हैं, सहनशील हैं, वीर हैं, गाढ़ ब्रह्मचर्यादि गुणों के धारी हैं, वे ही साधुपद में उत्कृष्ट धर्मध्यान व शुक्लध्यान साधन करके कर्मों को काटकर अरहन्त होते हैं । श्री अभिनन्दन जिन ने इस हो तरह अर्हत् पद प्राप्त किया। छन्द श्रग्विनी प्रात्म गुण वृद्धिते, नाथ अभिनन्दना । घर अहिंसा वधू, क्षांति से वित धना ॥ प्रात्ममय ध्यानकी, सिद्धिके कारणे । होय निर्ग्रन्थ पर, दोय विधि टारणे ॥१६।। उत्थानिका-दयावधू को आश्रय करके भगवान ने क्या किया तो इस श्लोक में कहते हैं अचेतने तत्कृतबन्धजेऽपि ममेदमित्याभिनिवेशकग्रहात् । प्रभंगुरे स्थावरनिश्चयेन च क्षतं जगत्तत्त्वमजिग्रहद्भवान् ॥१७॥ अन्वयार्थ-( अचेतने ) इस अचेतन जड़ शरीर में ( तत्कृतवन्धजेऽपि ) व इस जड़ शरीर व जीव के साथ बन्धन होने के कारण जो प्रात्मा के कर्मों का वध होता है उनके फल से जो सुख दुःखादि होता है व स्त्री पुत्र आदि का संयोग होता हैं उनमें भी ( मम इदम् इति आभिनिवेशकग्रहात् ) ये शरीरादि सब मेरे हैं, में इनका स्वामी हूँ, इस मिथ्या अभिप्राय को ग्रहण करके ( च ) तथा ( प्रभंगुरे ) नष्ट होने वाले पदार्थों को अवस्थाओं में ( स्थावरनिश्चयेन ) नित्य बने रहने के असत् निश्चय के कारण ( जगत् )
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy